-----इस कवायद से ही स्पष्ट हो जाता है कि राज्य के शैक्षिक हालात किस हद तक बदतर हो चुके हैं। -----नजर है राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय पुरस्कारों पर लेकिन, उस किताब का नाम भी नहीं याद जिसके सहारे वह बच्चों को रोजाना पढ़ाते हैं। धन्य हैं ऐसे गुरुजन। राष्ट्रपति और राज्य अध्यापक पुरस्कारों के लिए जिलों से संस्तुत किए गए परिषदीय विद्यालयों के ऐसे ही कुछ शिक्षकों से जब इंटरव्यू बोर्ड ने साक्षात्कार लिया तो बोर्ड के अध्यक्ष व सदस्य आश्चर्य के सागर में गोते लगाने लगे। प्रतिवर्ष शिक्षक दिवस पर पांच सितंबर को बेसिक और माध्यमिक शिक्षा से जुड़े चुनिंदा अध्यापकों को उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए राष्ट्रपति और राज्य अध्यापक पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। पुरस्कार के लिए अंतिम रूप से शिक्षकों के नाम केंद्र और राज्य सरकार को संस्तुत करने से पहले इंटरव्यू बोर्ड शिक्षकों से साक्षात्कार करता है। 12 से 14 जून तक बेसिक शिक्षा निदेशक के कार्यालय में जब जिला स्तरीय समितियों द्वारा संस्तुत शिक्षकों के साक्षात्कार हुए तो कई ऐसे मौके आए जब बोर्ड के सदस्य हतप्रभ रह गए। इंटरव्यू के दौरान कुछ शिक्षक पाठ्यपुस्तकों के पहले पांच अध्याय नहीं बता पाए। एक शिक्षक से जब उनके स्कूल के बच्चों की संख्या और सभी शिक्षकों को मिलने वाले कुल वेतन के आधार पर प्रति बच्चा खर्च बताने को कहा गया तो कागज-कलम लेकर काफी देर तक मशक्कत करने के बाद उन्होंने जवाब दे पाने में असमर्थता जता दी। एक महिला शिक्षक से जब यही जोड़ने को कहा गया तो उन्होंने कहा कि मैं तो उर्दू पढ़ाती हूं, गणित से मेरा क्या वास्ता। कई शिक्षकों से सवाल हुआ कि आप स्वयं को इन पुरस्कारों के लिए क्यों योग्य समझते हैं? ज्यादातर शिक्षकों का जवाब था कि समय से स्कूल आता हूं और बच्चों को पढ़ाने में लगा रहता हूं। यह हाल है प्रदेश में बेसिक शिक्षा की बदहाली का जिसके लिए सरकार ने पिछले वित्तीय वर्ष में 41 हजार करोड़ का बजट आवंटित किया था। इस बजट में तकरीबन 24 हजार करोड़ रुपये शिक्षकों के वेतन पर खर्च किए गए। अध्यापक पुरस्कार मिलने से पूर्व की इस कवायद से ही स्पष्ट हो जाता है कि राज्य के शैक्षिक हालात किस हद तक बदतर हो चुके हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य सरकार प्रदेश में बदहाली की शिकार शिक्षा व्यवस्था को ढर्रे पर लाने के लिए सख्त कदम उठाएगी।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]