सरकारी नौकरी करते हुए दवा की दुकानों पर अपनी सेवाओं का प्रमाणपत्र देने वाले फार्मासिस्टों का मामला हतप्रभ कर देने वाला है। सरकारी नियम कायदों के साथ जालसाजी किस तरह की जाती है, यह उसका एक और नमूना है। न्यायालय में दायर एक याचिका में जो विवरण दिये गए हैं, उसमें इस तरह के 66 फार्मासिस्टों का उल्लेख किया गया है। याचिका में दावा किया गया है कि अगर गहनता से जांच कराई जाये तो यह संख्या अनुमान से भी कई गुना ज्यादा निकलेगी। पूरे प्रदेश में दवा की दुकानों में इस तरह की व्यवस्था देखी जा सकती है। एक-एक फार्मासिस्ट सरकारी सेवा में होते हुए भी कई-कई दुकानों में अपना प्रमाणपत्र दे देता है। इसके बदले में उसे हर दुकान से प्रति माह बंधी-बधाई रकम मिल जाती है। दुकानदार और फार्मासिस्ट दोनों खुश। इस व्यवस्था में औषधि विभाग की मिलीभगत रहती है, लेकिन दवा की दुकान के लिए फार्मासिस्ट अनिवार्यता की व्यवस्था जिस उद्देश्य से की गई थी उसका पूर्ति कहीं से नहीं होती। हां, सरकारी नियमों को तोड़ने वालों का एक और तंत्र जरूर विकसित हो गया।

दवा की दुकानों में अंधेरगर्दी छिपी नहीं। प्रतिबंधित दवाओं की बिक्री, एक्सपायरी डेट की दवाओं की बिक्री जैसे मामले आए दिन सामने आते रहते हैं। ऐसे मामले उजागर होने के बाद भी कार्रवाई तो दरकिनार, अफसर दवा की दुकानों के मुआयने का कोरम भी कागजों पर घर बैठे ही पूरा कर लेते हैं। दुकानों से ग्राहकों को सही दवाएं मिलें, दवाओं में कोई गफलत न हो, इसके लिए ही सरकार ने हर दुकान में एक-एक फार्मासिस्ट की व्यवस्था की थी, लेकिन जालसाजों के चलते यह व्यवस्था मजाक बन कर रह गयी है। दायर याचिका का परिणाम क्या होगा यह तो निर्णय आने पर ही पता चलेगा, लेकिन प्रदेश के पढ़े लिखे तबके को इस पर जरूर चिंतन करना चाहिए कि नये-नये नियम-कायदों का खुर्राट लोग कैसे-कैसे तोड़ निकाल लाते हैं। सबसे ज्यादा हैरानी की बात तो यह है कि जो लोग इस व्यवस्था पर नजर रखने के जिम्मेदार हैं, वही इसमें गले तक फंसे नजर आ रहे हैं। न्यायालय द्वारा कोई आदेश जारी करने से पूर्व सरकार को ही कुछ ठोस करना होगा। अब समय आ गया है कि जनता से सीधे जुड़े इस प्रकरण की शीर्ष स्तर से गहरी पड़ताल हो और इस अव्यवस्था पर प्रभावी रोक लगाई जाए नहीं तो सारे नियम-कायदे ढोंग ही साबित होंगे।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]