नक्सली हिंसा के लिए बदनाम छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके के सुकमा जिले में एक बार फिर सीआरपीएफ जवान नक्सलियों का निशाना बन गए। इस बार 25 से ज्यादा सीआरपीएफ जवान शहादत का शिकार हुए। यह जितना चिंताजनक है उतना ही क्षोभजनक भी कि हमारे जवान रह-रहकर नक्सलियों का शिकार बन रहे हैं और फिर भी नक्सली संगठनों पर काबू पाने में सफलता मिलती नहीं दिख रही है। आखिर बार-बार की ऐसी घटनाओं के बाद ऐसा कोई दावा कैसे किया जा सकता है कि नक्सली संगठनों की ताकत कम होती जा रही है? ऐसी घटनाएं तो यही बताती हैं कि नक्सली जब चाहते हैं तब जवानों को निशाना बनाने में सफल रहते हैं। पिछले कुछ वर्षों में अकेले बस्तर इलाके में सैकड़ों जवान नक्सलियों का निशाना बन चुके हैं। अभी पिछले माह होली के ठीक पहले इसी इलाके में कोत्ताचेरू में 12 सीआरपीएफ जवान नक्सलियों के हाथों मारे गए थे। उस दौरान भी वे सड़क निर्माण में लगे मजदूरों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए तैनात थे। इससे खराब बात और कोई नहीं हो सकती कि सुरक्षा में एक जैसी चूक बार-बार हो। लगातार एक के बाद एक हमलों के बावजूद जरूरी सबक सीखने से इन्कार किया जाना एक तरह से जानबूझकर आफत मोल लेना है। आखिर बार-बार की आत्मघाती गफलत के लिए कौन जिम्मेदार है? यदि जानलेवा लापरवाही के लिए जिम्मेदार लोग जवाबदेह नहीं बनाए जाते तो फिर बस्तर में नक्सलियों के खूनी खेल को रोकना मुश्किल होगा।
इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि सीआरपीएफ जवानों की शहादत पर प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री ने शोक व्यक्त किया। देश जवानों की शहादत के इस सिलसिले पर विराम चाहता है न कि औपचारिक शोक संवेदनाएं। शोक संवेदनाओं और कठोर निंदा से न तो नक्सलियों की सेहत पर कोई फर्क पड़ता है और न ही उनके समर्थकों पर। यह समझना कठिन है कि गुरिल्ला शैली की लड़ाई में माहिर नक्सलियों का मुकाबला सीआरपीएफ के जरिये क्यों किया जा रहा है? सवाल यह भी है कि नक्सलियों की हर खूनी करतूत के बाद आपात बैठक करने वाले मुख्यमंत्री रमन सिंह राजनीतिक और प्रशासनिक उपायों के जरिये नक्सलियों की नकेल कसने में सक्षम क्यों नहीं हो पा रहे हैं? एक समय नक्सलियों से निपटने के तौर-तरीकों को लेकर तत्कालीन केंद्र सरकार से उनके मतभेद थे। क्या अब भी ऐसे कोई मतभेद हैं? यदि नहीं तो छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की कमर क्यों नहीं टूट रही है? यदि खूनी माफिया गिरोहों में तब्दील हो चुके नक्सली अभी भी ग्र्रामीणों को बरगलाने में सक्षम हैं तो यह राज्य सरकार की विफलता का परिचायक है। आखिर छत्तीसगढ़ सरकार आंध्र प्रदेश के ग्रेहाऊंड फोर्स सरीखे विशेष पुलिस बल के गठन की जरूरत क्यों नहीं समझ रही? नक्सली किसी नरमी और रियायत के हकदार नहीं हैं। वे भटके हुए नागरिक नहीं, देश के शत्रु सरीखे हैं। उनके साथ उनके समर्थकों की भी घेरेबंदी की जानी चाहिए, भले ही वे राजनेता ही क्यों न हों। यह भी देखा जाना चाहिए कि आखिर नक्सलियों को आधुनिक हथियार कहां से मिल रहे हैं? यह न केंद्र सरकार की प्रतिष्ठा के लिए ठीक और न ही छत्तीसगढ़ सरकार के लिए कि वे बस्तर में अभी भी आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं।

[ मुख्य संपादकीय ]