राज्य में करीब दो दशकों से चले आ रहे ओलंपिक संघों के विवाद पर विधानसभा में खेल मंत्री अनिल विज की चिंता वाजिब है। इससे प्रदेश की साख को तो बट्टा लग ही रहा है साथ ही खिलाडिय़ों को भी भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। खेल संघों की सियासत, मनमानी और उनके संचालकों का निजी स्वार्थ किस तरह खिलाडिय़ों और प्रदेश पर भारी पड़ रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं है। ऐसे कई अवसर आ चुके हैं जब खेल संघों की मूंछ की लड़ाई में खिलाड़ी खेलने से वंचित रह गए। टीमें रवाना हो गईं, लेकिन राष्ट्र स्तरीय प्रतियोगिताओं में उन्हें खेलने का मौका नहीं दिया गया। यह अलग बात है कि आज तक उन पर लगाम नहीं लगाई जा सकी है। इसके लिए उन सरकारों को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए जो अपने-अपने कार्यकाल में अपनी पार्टियों के संघ बनाती रही हैं। अब भारतीय ओलंपिक संघ द्वारा हरियाणा को राष्ट्रीय खेलों की मेजबानी की पेशकश करने की बात सामने आ रही है। दूसरी तरफ, यदि ये संघ इसी तरह अपने-अपने वर्चस्व के लिए लड़ते रहे तो इसमें कोई शक नहीं कि 'बिल्लियों' की लड़ाई में घर आया मौका हाथ से निकल जाएगा। प्रदेश के इतिहास में आज तक इतना बड़ा खेल आयोजन नहीं हो पाया है। इस आयोजन से निश्चित रूप से खेल के स्तर में और ज्यादा सुधार होगा। सरकार यदि इसे गंभीरता से नहीं ले रही है तो उसको समझ लेना चाहिए कि ये संघ प्रदेश और खेलों का बेड़ा गर्क कराने से कभी बाज नहीं आएंगे। खेल कोई राजनीतिक अखाड़ा नहीं है जो जीत के लिए पहलवान अपने-अपने दाव-पेंच लगाए। इसके अलावा यह भी जान लेना चाहिए कि उनको आर्थिक मदद भी मिलती रही है इसलिए इस दिशा में ठोस कदम उठाने की नितांत आवश्यकता आ गई है। राज्य के सम्मान के लिए यदि वे एकमत नहीं हो रहे तो उनके विरुद्ध ठोस कदम उठाने चाहिए। इसमें कोई दोराय नहीं कि सरकार ने खेलों को बढ़ावा देने के लिए सराहनीय कदम उठाए हैं। नई खेल नीति और खिलाडिय़ों को प्रोत्साहित करने के लिए इनामी राशि में उल्लेखनीय वृद्धि करने के कदम की खुले दिल से प्रशंसा की जानी चाहिए। चिंता करने वाली बात यह है कि जब तक सरकारें वोट की राजनीति के लिए अपने-अपने खेल संघों को स्थापित करती रहेंगी तब तक खेल और खिलाडिय़ों का पूर्ण रूप से भला होने वाला नहीं है। इस दिशा में सियासत छोड़ प्रदेश का हित सर्वोपरि मानकर कदम उठाने होंगे।

[ स्थानीय संपादकीय: हरियाणा ]