पाकिस्तान की ओर से गिलगित बाल्टिस्तान को अपना पांचवां प्रांत बनाने की कोशिश पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जिस सख्ती और स्पष्टता के साथ यह कहा कि पूरा कश्मीर भारत का है और यह किसी को सोचना भी नहीं चाहिए कि भारत अपने किसी हिस्से को यूं ही जाने देगा उसका इसलिए विशेष महत्व है, क्योंकि अमेरिका कश्मीर मसले पर मध्यस्थता करने की इच्छा प्रकट कर रहा है। उम्मीद है कि अमेरिकी प्रशासन को यह जरूरी संदेश पहुंच गया होगा कि कश्मीर मामले में उसकी कहीं कोई भूमिका नहीं हो सकती और वह मध्यस्थता का ख्याली पुलाव पकाना छोड़ दे। कश्मीर पर ऐसे किसी दो टूक बयान की जरूरत केवल अमेरिका को सही संदेश देने के लिए ही नहीं थी, बल्कि इसलिए भी थी ताकि पाकिस्तान नए सिरे से कोई मुगालता न पाल ले। यदि पाकिस्तान यह सोच रहा है कि इस या उस मंच पर कश्मीर का राग अलापने से वह भारत पर कोई दबाव बनाने में सफल हो जाएगा तो उसे समय रहते यह बताया ही जाना चाहिए कि यह संभव नहीं। अच्छा होगा कि पाकिस्तान को यह भी नए सिरे से बताया जाए कि वह आतंकवाद का सहारा लेकर कुछ हासिल नहीं कर सकता। नि:संदेह सुषमा स्वराज के सख्त संदेश को चीन ने भी सुना होगा, जो पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आर्थिक गलियारा बनाने की तैयारी इस तरह कर रहा है जैसे इस भू भाग का भारत से कोई लेना-देना ही न हो। यह अच्छा हुआ कि सुषमा स्वराज ने कश्मीर पर खरी बात कहते हुए संसद के साथ-साथ भाजपा के संकल्प का भी उल्लेख किया।
यह भी अच्छा ही हुआ कि तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा पर चीन की बेजा आपत्ति पर भारत ने तीखे तेवर दिखाने में कोई संकोच नहीं किया। विदेश नीति के मामले में कभी-कभी कठोर रवैया वक्त की मांग होता है। यह सर्वथा उचित है कि मोदी सरकार जैसी दृढ़ता अन्य अनेक मोर्चों पर प्रदर्शित कर रही है वैसी ही विदेश नीति के मामले में भी दिखा रही है। यह बदलते भारत का एक और संकेत है। यह आज की जरूरत है कि चीन और अमेरिका के साथ ही सारी दुनिया को यह संदेश जाए कि वह दौर बीत गया जब भारत अपने हितों की रक्षा को लेकर नरम-मुलायम स्वर में बात करता था। जिस तरह अमेरिका को यह संदेश देना आवश्यक था कि वह कश्मीर के मामले में बीच-बचाव करने की अपनी इच्छा अपने पास रखे उसी तरह चीन को भी यह बताना जरूरी था कि अरुणाचल प्रदेश पर उसकी व्यर्थ की दलीलों को कोई भाव नहीं मिलने वाला और यदि वह गैर जरूरी टीका-टिप्पणी करते रहता है तो उसे उसी की भाषा में जवाब मिलेगा। यह चीन की शरारत के अलावा और कुछ नहीं कि दलाई लामा अब तक छह बार अरुणाचल जा चुके हैं, लेकिन वह ऐसे दिखा रहा है जैसे इस बार कुछ नया हो रहा हो। यदि चीन अरुणाचल पर अपने रवैये में तब्दीली नहीं लाता तो फिर भारत को यह संकेत देने में हिचकना नहीं चाहिए कि वह तिब्बत के मामले में अपना नजरिया बदलने को बाध्य हो सकता है।

[ मुख्य संपादकीय ]