प्रदेश में घटता वनक्षेत्र चिंता का विषय बनता जा रहा है। हर साल हरियाली बढ़ाने के उद्देश्य से वन विभाग व्यापक पौधरोपण अभियान चलाता है। कई करोड़ नए पौधे लगाए जाते हैं, जागरूकता अभियान चलते हैं। बावजूद इसके वनक्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि यह पौधे गए कहां? क्या केवल कागज में ही पौधे लगा दिए गए? पिछले दिनों हुए कुछ खुलासे साबित करते हैं कि हरियाली भले ही धरा पर न दिखे लेकिन अफसरों के आंगन में खूब लहलहाई। इन कारणों से पूरी प्रक्रिया ही सवालों के घेरे में आ जाती है। चूंकि वन विभाग को मानसून में पौधे लगाने का लक्ष्य मिलता है और अधिकारी आनन-फानन में निजी व स्वयंसेवी संस्थाओं और सहकारी विभागों में पौधे बांट देते हैं। ऐसे में यह पौधे कहां लगे और उनकी देखरेख की क्या व्यवस्था रही, यह न तो कोई जानता है और न जानने का प्रयास ही किया जाता है। परिणामस्वरूप अधिकतर स्थानों पर पौधे रोपित ही नहीं होते और जो रोपित हुए, वे भी पर्याप्त देखरेख के अभाव में दम तोड़ देते हैं।
उधर, विकास परियोजनाओं व तेजी से बढ़ते शहरीकरण के कारण धड़ाधड़ पेड़ काटे जा रहे हैं। कुछ जगहों पर तो वनक्षेत्र पर कब्जे भी हो चुके हैं। इन स्थितियों से निपटने के लिए योजनाएं तो बहुत हैं लेकिन धरातल पर असर लगभग शून्य दिखता है। आवश्यक है कि योजनाएं ऐसी हों जिसमें जनभागेदारी भी तय हो। आवश्यक है कि किसान भी इस मुहिम में शामिल किए जाएं। उनको पेड़ों से होने वाले राजस्व में भी भागीदार बनाया जाए, तभी वे अधिक से अधिक पेड़ लगाने को प्रोत्साहित होंगे। राजमार्गों व अन्य प्रमुख मार्गों के किनारे व्यावसायिक उपयोग के या फलदार पेड़ लगाए जाएं। इसमें वनविभाग के साथ बागवानी व कृषि विभाग भी सहयोग करे। बाद में फलदार पौधे किसानों को ठेके पर दे दिए जाएं और उसमें से कुछ राजस्व वन विभाग के पास जमा करवा दें। व्यावसायिक उपयोग के पेड़ों में भी किसानों की हिस्सेदारी तय हो। इससे एक तो वन विभाग मानसून के दौरान पूरी कसरत से बच जाएगा और किसान अपने श्रम पर इसे लगाने के लिए प्रोत्साहित भी होंगे। इससे सड़क मार्गों के आसपास तो निश्चित तौर पर हरियाली बढ़ेगी ही।

[ स्थानीय संपादकीय : हरियाणा ]