मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की यह धारणा सही है कि एक समय राज्य के सरकारी अस्पतालों में बेड पर कुत्ते सोते थे, अब हालात कहीं बेहतर हैं। इसके बावजूद सरकारी अस्पतालों की चिकित्सा व्यवस्था संतोषजनक नहीं मानी जा सकती। इसे पटरी पर लाने के लिए प्राथमिकता के आधार पर प्रयास किया जाना चाहिए। सबसे अहम बात यह है कि अभाव का रोना छोड़कर जो संसाधन उपलब्ध हैं, उनका अधिकतम एवं श्रेष्ठतम इस्तेमाल किया जाना चाहिए। कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित अस्पतालों की दशा बेहद चिंताजनक है। डॉक्टर और पैरा मेडिकल कर्मचारी गायब रहते हैं, सफाई व्यवस्था का कोई पुरसाहाल नहीं। दवाएं तो खैर रहती ही नहीं। इन अस्पतालों की बदहाली का लाभ उठाकर झोलाछाप डॉक्टर अपना धंधा खूब चमकाते हैं। यही वजह है कि सरकार के तमाम प्रयास के बावजूद झोलाछाप डॉक्टरों का धंधा खत्म नहीं किया जा सका। ये 'डॉक्टर' सहज उपलब्ध रहते हैं तथा रोगियों और तीमारदारों के साथ मधुर व्यवहार करते हैं। सरकारी अस्पतालों से ये अपेक्षाएं नहीं की जा सकतीं। देखा गया है कि ग्रामीण और कस्बाई अस्पतालों में तैनात डॉक्टर शहरों में निजी क्लीनिक चलाते हैं। उनकी अनुपस्थित में वार्ड ब्वाय या सफाईकर्मी अस्पताल का संचालन करते हैं। शहरी अस्पतालों का भी यही हाल है। यहां तैनात डॉक्टरों की भी पहली प्राथमिकता निजी प्रैक्टिस है। मरीज तय समय पर आउटडोर के बाहर इंतजार करते हैं जबकि डॉक्टर साहब निजी प्रैक्टिस निपटाकर 11-12 बजे अस्पताल पहुंचते हैं। सरकारी अस्पतालों के उपकरण भी हमेशा खराब रहते हैं। यह यक्षप्रश्न है कि सरकारी अस्पतालों के ठीक बाहर दवा और जांच की दुकानें क्यों स्थापित होती हैं? सबको पता है कि अस्पताल में उपलब्ध सुविधा नजरअंदाज करके डॉक्टर अपनी स्लिप पर बाकायदा मेडिकल शॉप या पैथालॉजी का नाम तक लिख देते हैं। यह स्थिति प्रांतीय सेवा के अस्पतालों से लेकर मेडिकल कॉलेजों तक में देखी जाती है। सबको इस बारे में जानकारी रहती है लेकिन 'सब चलता है' के तर्ज पर दशकों से यह सब चल रहा है। राज्य सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए। चिकित्सा बेहद महंगा क्षेत्र हो गया है। आम आदमी प्रतिष्ठित निजी अस्पतालों में इलाज कराने की कल्पना भी नहीं कर सकता। इसे ध्यान में रखते हुए आवश्यक है कि सरकारी चिकित्सा व्यवस्था कारगर बनाने के लिए कार्ययोजना तैयार की जाए। जब तक साधारण व्यक्तियों को उच्चकोटि का इलाज मुहैया नहीं होता, लोक हितकारी शासन की मंशा अधूरी ही मानी जाएगी।
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किसे नहीं पता कि हर स्तर के सरकारी अस्पताल दलालों और कमीशनखोरों के अड्डे बन गए हैं। यहां आने वाले मरीज निजी क्लीनिकों में पहुंचा दिए जाते हैं और यहां की दवाएं अस्पताल के बाहर चल रहे मेडिकल स्टोरों में। सरकारी अस्पतालों के 'इलाज' की कार्ययोजना शीघ्र बनाई जानी चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय : बिहार ]