प्रदेश में तबादलों को लेकर संशय खत्म होने से कार्मिकों को राहत मिली है। लेकिन, सरकार के सामने तबादलों की पारदर्शी व्यवस्था के लिए लाए जा रहे विधेयक को जल्द कानून की शक्ल देने की चुनौती भी है।
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प्रदेश में सरकारी कार्मिकों के तबादलों का रास्ता आखिरकार साफ हो गया। इसे लेकर लंबे समय से असमंजस बना हुआ था। खासतौर पर उत्तराखंड लोकसेवकों के लिए वार्षिक स्थानांतरण विधेयक को लेकर सरकार ने जिसतरह तेजी दिखाई, उसे देखते हुए माना जाने लगा कि नई सरकार अपने वायदे के मुताबिक नए कानून को लागू कर तबादले करेगी। उक्त विधेयक अभी विधानसभा की प्रवर समिति के सुपुर्द है। प्रवर समिति को एक माह में अपनी रिपोर्ट देनी थी, लेकिन अब समिति की समय अवधि बढ़ाई जा चुकी है। बताया जा रहा है कि समिति विधेयक में संशोधन को लेकर अपनी रिपोर्ट देने से पहले इस मामले में बैठकों का सिलसिला जारी रखने के पक्ष में है। समिति विधेयक के संबंध में अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप देने से पहले तमाम पहलुओं को खंगालना चाहती है। यह सही भी है। इस विधेयक पर आम जनता के साथ ही तमाम कर्मचारी-शिक्षक संगठनों से सुझाव मांगे जा चुके हैं। इन सुझावों के सम्यक विश्लेषण से नए तबादला कानून को राज्य के परिप्रेक्ष्य में अधिक व्यावहारिक बनाया जा सकता है। इस वजह से नए तबादला कानून को अस्तित्व में आने में वक्त लगता दिख रहा है। ऐसे में कार्मिक महकमे की मौजूदा नियमावली के आधार पर ही सरकार का तबादले करने का निर्णय सकारात्मक है। इससे दुर्गम स्थानों में वर्षों से कार्यरत कर्मचारियों को तो राहत मिलेगी, प्रशासनिक व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिहाज से भी तबादलों को अंजाम दिया जा सकेगा। बीते वर्ष विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सालाना तबादले नहीं किए गए थे। इस वजह से वर्तमान में विभिन्न सरकारी महकमों के कार्मिक तबादलों को लेकर आस बांधे हुए हैं। हालांकि, सरकार ने यह फैसला देर से किया है। शिक्षा मंत्रालय इस फैसले से पहले ही मुख्यमंत्री के अनुमोदन से बड़े पैमाने पर शिक्षा अधिकारियों को इधर से उधर कर चुका है। सरकार के सामने अब तबादले की व्यवस्था को पारदर्शिता से अंजाम देने की चुनौती है। हकीकत ये है कि राज्य बनने के बाद भी दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में तैनाती को लेकर कार्मिकों में कन्नी काटने की प्रवृत्ति बनी हुई है। इस विडंबना के पीछे तबादलों में पारदर्शिता का अभाव ही है। राज्य गठन के 16 साल बाद भी तबादलों को लेकर कारगर व पारदर्शी नीति नहीं बन पाई है। इसका खामियाजा पर्वतीय क्षेत्रों को भुगतना पड़ रहा है।

[  स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड  ]