यूं तो गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम तट पर लगने वाले माघ मेला में संत समाज कई सालों से इन नदियों के प्रदूषण का मुद्दा उठाता रहा है लेकिन, इस बार की आवाज अधिक गंभीर है। इस बार संतों ने परस्पर मतभिन्नताओं को भुलाकर आवाज उठाई है। यह सही वक्त भी है क्योंकि केंद्र सरकार गंगा में प्रदूषण को लेकर गंभीर है और नमामि गंगे प्रोजेक्ट के तहत अरबों रुपये खर्च भी किए जा रहे हैं। नदियों के अस्तित्व पर ही हमारी सभ्यता और संस्कृति टिकी हुई है लेकिन, इसके बावजूद हम इनमें लगातार हो रहे प्रदूषण की अनदेखी करते रहे हैं। संत समाज इससे आक्रोश में है और इस बार उसने प्रधानमंत्री का दरवाजा खटखटाने का भी फैसला लिया है। इसके लिए संतों के हर सम्मेलन में प्रस्ताव पारित कर भेजा जाएगा। सार्थक पक्ष यह है कि इन प्रस्तावों में गंगा-यमुना की निर्मलता का मुद्दा तो प्रमुख होगा ही, इसके साथ ही संस्कृत उत्थान, वेदों के संरक्षण, तीर्थस्थलों का सुंदरीकरण जैसे मुद्दे भी शामिल होंगे। संत समाज केंद्र और राज्य सरकार के दायित्वों के प्रति भी उन्हें सचेत करेगा।

गंगा-यमुना करोड़ों लोगों की आस्था की प्रतीक हैं लेकिन, विडंबना यह है कि सभी वर्ग उनके प्रति अपने दायित्वों से उदासीन रहते हैं। कुछ साल पहले ही हाईकोर्ट ने गंगा किनारों पर पॉलीथिन के प्रयोग को प्रतिबंधित किया था परंतु यह आदेश कागजी ही होकर रह गया। प्रदूषण के लिए जारी किए आदेश भी प्रभावी नहीं हो पाए। कानपुर से टेनरियों का पानी तो आ ही रहा है औद्योगिक कचरे के साथ-साथ प्लास्टिक कचरे की बहुतायत भी गंगा के जल को जहरीला बना रही है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश की 12 प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा जल है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार भी गंगा जल में आर्सेनिक, फ्लोराइड एवं क्रोमियम जैसे हानिकारक तत्वों की बड़ी मात्र पाई गई है। गंगा का जलस्तर भी इसके प्रदूषण का एक कारण है। इससे गंगा में ऑक्सीजन की मात्र सामान्य से कम हो गई है। प्रदूषण की वजह से वे जल जीव भी समाप्त हो रहे हैं जो जल को निर्मल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। ऐसी स्थिति में संतों की आवाज चेतना जागृत करेगी और जब तक हम नहीं चेतेंगे तब तक सरकारें भी उदासीन रहेंगी।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]