प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सर्वोच्च प्राथमिकता में शामिल स्वच्छ भारत मिशन को कामयाब बनाने के लिए पूरे प्रयास किए जा रहे हैं। यह एक सुखद अहसास है कि सरकारें स्वच्छता को लेकर संजीदा नजर आ रही हैं। टिहरी जिले में स्वजल परियोजना के माध्यम से शुरू होने जा रहा प्रयोग भी इसमें से एक है। इस प्रयोग के तहत जिले में 1500 छात्र-छात्रओं को सीटी दी जाएंगी। स्कूल आते-जाते समय ये छात्र-छात्रएं किसी को भी खुले में शौच करते देखेंगे तो सीटी बजा देंगे। मनौविज्ञान की दृष्टि से देखें तो यह प्रयास काफी हद तक खुले में शौच की प्रथा पर अंकुश लगा सकता है और निसंदेह बाल प्रकृति इसमें खासी मददगार साबित होगी।

लेकिन मामला सिर्फ आदतों से जुड़ा होता तो बात थोड़ी आसान होती, स्थिति कुछ ज्यादा गंभीर है। उत्तरकाशी के एक गांव के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। आस्था कहें या अंधविश्वास, लोगों ने सरकारी इमदाद से शौचालय तो बनवाए, लेकिन देवता के डर से उन्हें तुड़वा डाला। बाकायदा पंचायत बुलाकर अफसरों ने काउंसिलिंग की तब जाकर बात बन पाई। जैसे इतना भी कम था, ग्रामीण क्षेत्रों में लंबे समय से एक ‘विश्वास’ चला आ रहा है कि एक तो घर के आसपास शौचालय होने से बीमारियां फैलेंगी, दूसरा जंगल जाने के लिए पैदल चलने से सेहत भी दुरुस्त रहेगी। जाहिर है इस मानसिकता को बदलने के लिए खासी मेहनत की जरूरत है। दरअसल मनोवैज्ञानिक दबाव और जागरूकता अभियान साथ-साथ चलाकर ही इस दिशा में सफलता पायी जा सकती है।

यह विडंबना ही है कि जिस देश में हड़प्पा सभ्यता के काल में भी टॉयलेट इस्तेमाल किए जाने के प्रमाण मिलते हों, वहां आज भी यह स्थिति है। आधुनिक टॉयलेट का आविष्कार हुए भी चार सदियां बीत चुकी हैं। वर्ष1596 में एक अंग्रेज सर जॉन हारिगटन ने आधुनिक टॉयलेट ईजाद की थी। पश्चिम ने ऐसी कुप्रथाओं से मुक्ति पा ली, लेकिन पूरब में सूरज उदय होने में वक्त लग रहा है। यह तथ्य किसी को भी हैरत में डाल सकता है कि अकेले टिहरी जिले की 1038 ग्राम पंचायतों में महज 108 ही खुले में शौच की प्रथा से मुक्त हैं और यह आंकड़ा सिर्फ टिहरी का नहीं, पूरे प्रदेश की हालत इससे अलग शायद ही हो। हम देवभूमि के वाशिंदे हैं। हर साल देश विदेश से करोड़ों श्रद्धालु आस्था के वशीभूत यहां पहुंचते हैं तो वादियों से अभिभूत सैलानियों का भी यह पसंदीदा प्रदेश है। आस्था के वश नंगे पांव चलने वाले श्रद्धालु हों अथवा सैलानी इस भूमि की पवित्रता के सम्मुख नत रहते हैं। ऐसे में क्या स्वच्छता हमारी भी सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]