झारखंड में जमीन की बड़े पैमाने पर बंदरबांट होती रही है। गैर आदिवासियों के बीच आदिवासी भूमि के हस्तांतरण पर पाबंदी रहने के बावजूद आदिवासियों की लाखों एकड़ भूमि बेच दी गई। अवैध कारोबारियों ने सरकारी जमीन तक को नहीं बख्शा। जमीन के इस बंदरबांट का ठीकरा सिर्फ बिचौलियों पर फोड़ना उचित नहीं होगा, अधिकारियों और कर्मचारियों की मिलीभगत भी जमीन के गोरखधंधे में प्रमाणित हो चुकी है। बड़ा सवाल यह कि 1969 से ही आदिवासी भूमि के हस्तांतरण पर रोक लगी है, फिर भी जमीन कैसे बिकती रही? कहने को सरकार ने आदिवासी जमीन की खरीद-बिक्री पर अंकुश लगाने के लिए एसएआर कोर्ट तक का गठन किया।

1999 तक ऐसे सारे मामलों को निपटाने की जवाबदेही कोर्ट को सौंपी गई थी। आदिवासी भूमि के खरीदारों को चिह्न्ति कर संबंधित भूमि का वर्तमान मूल्य मूल रैयतों को दिलाना कोर्ट का मूल दायित्व था। इसके बाद भी यह गोरखधंधा नहीं रुका। लोग 1999 के बाद भी आदिवासी भूमि खरीदते रहे और उसे 1969 की खरीद दर्शाते रहे, जिसपर जिम्मेदार अधिकारी खामोश रहे। जिन पदाधिकारियों को न्याय दिलाने की जवाबदेही के साथ सरकार ने कोर्ट में पदस्थापित किया, उनमें से कई स्वयं पथभ्रष्ट हो गए। इनमें से कई पर आज भी मुकदमा चल रहा है। सवाल और भी हैं। पंजी-दो, जिसमें जमीन की प्रकृति से लेकर रैयतों का पूरा ब्योरा रहता है, राजस्व प्रशासन की सबसे निचली इकाई हल्का कर्मचारी के हवाले कर दिया गया।

झारखंड में भूमि घोटाले की जड़ में जाएं, तो जमीन का वारा-न्यारा करने में सबसे बड़ी भूमिका पंजी-दो की ही रही है। अफसर-बिचौलिया गठजोड़ में मूल रैयतों के नाम, जमीन का रकबा और चौहद्दी ही नहीं बदल दिए गए, पूरी की पूरी पंजी तक बदल गई। हालांकि सरकार ने अब इसकी सुध ली है। जमीन से संबंधित सारे दस्तावेज डिजिटलाइज्ड किए जा रहे हैं। पंजी-2 में राजस्व कर्मचारियों के साथ-साथ अंचल निरीक्षकों और अंचलाधिकारियों का हस्ताक्षर अनिवार्य कर दिया गया है। कई स्तरों पर जांच पड़ताल के मूल रिकॉर्ड अपर समाहर्ता के माध्यम से एनआइसी (नेशनल इंफॉरमेटिक सेंटर) को भेजे जाएंगे। जब संबंधित डाटा की इंट्री होने लगेगी, अंचलाधिकारी पंजी-2 में अंकित तथ्यों का मिलान करेंगे। इसके बाद ही संबंधित जमीन की जमाबंदी कायम हो सकेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार के इन प्रयासों से फर्जीवाड़े पर रोक लगेगी।

 [ स्थानीय संपादकीय : झारखंड ]