ताज्जुब है। 10 करोड़ से अधिक की आबादी के भाग्य विधाता जाति के कुछ ठेकेदार बन जाते हैं। यह देश की हिन्दी पट्टी के कुछ राज्यों में ही संभव है। बिहार में तो चुनाव के वक्त जाति का सबसे घृणित दृश्य नजर आता है। पांच साल तक जाति और धर्म के आधार पर राजनीति का विरोध करने वाले राज्य के बड़े राजनेता चुनावी मौसम में जाति के पुरोधा बन जाते हैं। जाति की यह ठेकेदारी ऊपर से नीचे तक चलती है। बहुत हद तक यह मामला बड़े ठेकेदार और उनसे जुड़े छोटे ठेकेदारों की तरह नजर आता है। बड़ा ठेकेदार हैसियत के हिसाब से बड़ा काम लेता है। छोटा ठेकेदार उसके हिस्सेदारी के काम को लोकसभा या विधानसभा के स्तर पर संभालता है। उनका नेटवर्क गांवों तक फैला हुआ है। जाति के इन ठेकेदारों के लिए अच्छी बात है कि बिरादरी के लोग उनसे सवाल नहीं करते हैं। कोई इनसे यह नहीं पूछता है कि आपके परिवार की तरक्की हो जाने से पूरी बिरादरी की तरक्की कैसे हो जाएगी। सिर्फ आपके भाई-बहन, पत्‍‌नी, बेटे-बेटियां और दीगर रिश्तेदारों के सांसद या विधायक बन जाने से हम सबका कल्याण कैसे हो जाएगा? यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि पूरी बिरादरी में राजनीति करने लायक काबिल लोग आपके परिवार में ही क्यों पैदा होते हैं? हम गरीबों के घर में वे क्यों नहीं पैदा होते हैं। राज्य की राजनीति गवाह है। बारी-बारी से प्राय: सभी बिरादरी के लोग शीर्ष पदों पर बैठे। उन सबने छिपकर या खुलकर जाति की राजनीति की। अगर जाति के किसी व्यक्ति के शीर्ष पर बैठ जाने से पूरी बिरादरी का विकास हो जाता जो राज्य के लोग गरीब कहे जाने में गौरव का अहसास नहीं करते। उनके नेता यह कहकर खुश नहीं होते कि हमारी बिरादरी के लोग गरीब हैं। इसलिए हमारे साथ हैं। यानी अमीर होते तो दूसरी बिरादरी के साथ चले जाते।

यह सच भी है कि जाति का यह कारोबार गरीबी और अशिक्षा की मूल पूंजी पर ही चल पाता है। संपन्न लोग किसी जाति के हों, उनका आपसी रिश्ता अच्छा ही रहता है। उनके बीच जाति बंधन के बिना खान-पान होता है। यहां तक कि शादी जैसे रिश्ते भी बन जाते हैं। लेकिन, इसी जाति या धर्म के नाम पर गरीब आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं। यह हाल सभी जातियों का है। यह आम लोगों के लिए विचार का विषय है कि आम तौर पर जातियां सिर्फ शादी-ब्याह के रिश्ते बनाने के दिनों में ही काम आती हैं। बाकी दिनों में जाति के नाम पर आम गरीबों का भावनात्मक शोषण ही होता है। कोई माई का लाल एक उदाहरण दे जिससे यह साबित हो कि किसी संपन्न राजनीतिज्ञ ने सिर्फ जाति के नाम पर अपनी बिरादरी के किसी गरीब के साथ शादी-ब्याह का संबंध बनाया। इस तरह के रिश्ते अपवाद में भी नहीं मिल पाते हैं। तब इस सच पर कौन विचार करेगा कि जाति के बदले गुण के आधार पर जन प्रतिनिधियों का चयन किया जाना चाहिए। भावना के बदले ठोस मुद्दे के आधार पर उनसे सवाल-जवाब किया जाना चाहिए। अगर इस स्तर पर लोग जागरूक नहीं होंगे तो हर बार पांच साल के लिए उन्हें ठगे जाने से कौन रोक पाएगा। कम से कम युवा वोटरों को तो इस पर गंभीरता से विचार करना होगा।

[स्थानीय संपादकीय: बिहार]