सरकार ने स्वास्थ्य विभाग के एक दर्जन बड़े अधिकारियों का वेतन रोककर यह संकेत दिया है कि अव्यवस्था के लिए उन्हें ही जिम्मेदार माना जाएगा। प्रदेश में अस्पतालों का हाल छिपा नहीं है और निश्चित रूप से इसके लिए अधिकारियों की उदासीनता ही जिम्मेदार है। अभी हाल ही में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य मंत्री शिवाकांत ओझा ने खुद इलाहाबाद के दो अस्पतालों का निरीक्षण किया और अधिकारियों की लापरवाही पाई थी। इसके बाद भी वहां की व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ। वस्तुत: स्वास्थ्य विभाग की हालत उस चिकने घड़े जैसी है जिस पर किसी की भी डांट-फटकार या चेतावनी का कोई असर नहीं होता। कुछ दिन पहले प्रदेश में डेंगू और चिकनगुनिया के मरीजों के इलाज में भी अस्पतालों में अफरातफरी रही और हाईकोर्ट को यहां तक कहना पड़ गया था कि क्यों न यहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाह। इसके बाद थोड़ी सी हिलडुल हुई लेकिन, फिर स्थिति जस की तस। एक वरिष्ठ वकील के बेटे की मौत के बाद उनके मार्मिक पत्र पर भी हाईकोर्ट ने अस्पतालों की स्थिति पर चिंता जताई थी लेकिन 'दूसरे भगवान' कहे जाने वाले चिकित्सक अपनी परंपरागत कार्यशैली से बाज न आए और आंकड़ों की आड़ में खुद को बचाने का प्रयास करते रहे। यह विडंबना है कि जिन बारह जिलों के मुख्य चिकित्सा अधीक्षकों का वेतन रोका गया है, उनमें राजधानी लखनऊ और गाजियाबाद जैसे भी जिले हैं जहां सरकार की सीधी नजर रहती है। यहां के मुख्य चिकित्सा अधीक्षकों पर आरोप है कि उन्होंने रोगी कल्याण समिति का धन खर्च नहीं किया। हालांकि सरकार को इसके लिए मुख्य स्वास्थ्य अधिकारियों और जिलाधिकारियों को भी जिम्मेदार बनाना चाहिए था क्योंकि इसका परोक्ष दायित्व उन पर भी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रदेश सरकार ने पिछले कुछ सालों में अस्पतालों को अनेक सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं लेकिन, मरीजों को इसका समुचित लाभ तभी मिल सकता है जबकि चिकित्सक उनके प्रति संवेदनशील भी हों। सरकारी चिकित्सकों के अपने तंत्र हैं और उन्हें उस पर अगाध भरोसा है। एक डाक्टर के तेरह सालों तक एक ही जगह तैनाती पर हाईकोर्ट ने भी सवाल उठाया है। रोगी कल्याण समिति का धन खर्च न करने वाले सीएमएस का वेतन रोकना भी इस तंत्र का एक उदाहरण है। इसे कठोर अनुशासनात्मक कार्रवाई के दायरे में नहीं रखा जा सकता। सरकार को ऐसा दंड देना चाहिए था जो अन्य जिम्मेदार अधिकारियों के लिए भी सबक होता।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]