आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के तहत निजी अस्पतालों में 10 फीसद बेड गरीबों के लिए आरक्षित रखने के नियम का पालन नहीं करने और गरीब मरीजों का इलाज नहीं करने पर दिल्ली सरकार ने पांच निजी अस्पतालों से एक हजार करोड़ रुपये वसूलने का फैसला किया है। यह देर से उठाया गया सही फैसला है। राजधानी के सरकारी अस्पतालों में मरीजों की भीड़ इस कदर है कि सरकार का दम फूल जाता है, उसमें भी यह आलम तब है जब शहर में 70 फीसद स्वास्थ्य सेवाएं निजी क्षेत्र द्वारा मुहैया कराई जा रही हैं। राज्य सरकार ने 43 अस्पतालों को सस्ती दरों पर भूखंड दिया था और इसकी एवज में उन्हें दस फीसद बेड गरीब मरीजों के लिए आरक्षित रखने थे, लेकिन अधिकतर अस्पताल ऐसा करने में नाकाम रहे हैं।

हाई कोर्ट ने वर्ष 2007 में ईडब्ल्यूएस श्रेणी के तहत मरीजों का इलाज नहीं करने वाले अस्पतालों से पैसा वसूलने का निर्देश दिया था, लेकिन तब से अब तक कुछ नहीं हुआ। अब जाकर राज्य सरकार चेती है। उसे पहले ही चेत जाना चाहिए था क्योंकि इससे बाकी अस्पतालों पर भी दबाव पड़ता। कम से कम नई सरकार के आने के बाद डेढ़ साल में जितने गरीबों को इन अस्पतालों ने धोखा दिया है वे बच जाते। फिर भी इस फैसले को देर आए, दुरुस्त आए मानते हुए भविष्य में गरीबों का कुछ भला होने की उम्मीद की जा सकती है। निजी क्षेत्र के अस्पतालों में इलाज बहुत महंगा है और गरीबों के लिए यहां स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करना आसान नहीं है। इसके साथ ही राज्य सरकार को उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं का भी समुचित प्रयोग करना चाहिए क्योंकि सरकारी अस्पतालों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। नियमों का पालन नहीं करने वाले निजी अस्पतालों पर तो हाईकोर्ट ने जुर्माना लगा दिया और नौ साल बाद राज्य सरकार ने उसे वसूलने का फरमान भी सुना दिया, लेकिन जो सरकारी अस्पताल व कर्मचारी लगातार नियमों की अनदेखी कर रहे हैं उनको कौन सुधारेगा। अब समय आ गया है कि उस पर भी ध्यान दिया जाए क्योंकि दिल्ली में उन लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है जो दूसरे प्रदेशों से आते हैं और ऐसे इलाकों में रहते हैं जहां बीमार होने का खतरा ज्यादा है। दिल्ली की सरकार को मोहल्ला क्लीनिक से ऊपर उठकर सोचना होगा तभी यहां के लोगों का भला हो सकता है।

[ स्थानीय संपादकीय : दिल्ली ]