धनबाद में हत्या की राजनीति की लंबी फेहरिस्त रही है। कोयला के वैध-अवैध कारोबार और ट्रेड यूनियन की राजनीति में वर्चस्व ने कई मांग सूनी कर दी। काले हीरे के लिए विश्वप्रसिद्ध धनबाद हमेशा खूनी संघर्ष के लिए भी बदनाम रहा है। यहां रह-रहकर राजनीतिक, आर्थिक वर्चस्व में लाशें गिरती रही हैं। केंद्र और राज्य में सरकारें बदलती रहीं, मगर इस पर अंकुश आज की तिथि में भी नहीं लग पाया। जब केंद्र में चौधरी चरण सिंह की सरकार थी तब पहली बार धनबाद में माफिया गतिविधियों पर अंकुश के लिए एक समग्र नीति बनी। इसमें कानून-व्यवस्था को सुधारने के साथ भारत कोकिंग कोल लिमिटेड की आर्थिक गतिविधियों से माफिया के हस्तक्षेप को हटाना शामिल था। यह नीति गिनती के कुछ वषों तक लागू हुई मगर केंद्र और राज्य में सरकार बदलने और दोनों के बीच तालमेल के अभाव में बेपटरी हो गई। इसके साथ ही खूनी संघर्ष का सिलसिला फिर से शुरू हो गया। यह खूनी दौर नहीं रुकने का सबसे बड़ा कारण यह है कि अधिकतर मामलों में हत्यारे कानूनी शिकंजे से बच निकलने में कामयाब रहे हैं। लंबी कानूनी प्रक्रिया को ही बचाव का रास्ता बना लिया जाता है। अदालती भूल-भुलैया का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है एक बार जब माफिया ट्रायल धनबाद से आसनसोल स्थानांतरित हुआ तो वहां दस्तावेज के अनुवाद में ही एक दशक से ज्यादा समय लग गया। च्हसा करने वालों को लगता है कि वे वारदात के बाद भी बच निकलेंगे। उनका यह विश्वास ही हत्या की अगली कड़ी जोड़ देता है। मजदूर नेता बीपी सिन्हा, सकलदेव सिंह, राजू यादव, सुरेश सिंह, सुशांतो सेन गुप्ता, प्रमोद सिंह, राजीव रंजन सिंह, रंजय सिंह आदि के असली हत्यारे सलाखों के भीतर नहीं डाले जा सके। अब इस कड़ी में 21 मार्च को पूर्व डिप्टी मेयर नीरज सिंह समेत चार लोगों की सरेशाम गोली मार कर हत्या की घटना शामिल हो गई। आठ दिन बाद भी न शूटर और न ही षड्यंत्रकारी गिरफ्त में आ पाए हैं। सरकार को चाहिए कि वह सख्त संदेश दे। इस मर्डर केस की तह तक जांच एजेंसी जाए। धनबाद में हत्या के मामलों की पहले भी सीबीआइ जांच हो चुकी है। सरकार के लिए यह भी जरूरी है कि कोयला आधारित जो माफियापन है, उस पर अंकुश लगे। कानून का इतना सख्त पहरा हो कि कोई कानून तोडऩे से पहले सौ बार सोचे।

[ स्थानीय संपादकीय : झारखंड ]