केंद्रीय मंत्री बीरेंद्र सिंह की यह टिप्पणी कई गंभीर मायने रखती है कि हरियाणा में किसानों की स्थिति बेहद खराब है, इसी तरह भाजपा के एक प्रमुख सांसद ने भी कहा कि बदतर हालत के कारण किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। केंद्रीय पूल में अनाज देने वाला दूसरा सबसे बड़ा राज्य होने के बावजूद किसानों की आर्थिक हालत इतनी दयनीय क्यों है, इस बारे में सरकार को गंभीर चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है। उन कारणों की पड़ताल करनी होगी जो कड़ी मेहनत करने वाले किसानों को खुशहाल बनने से रोक रहे हैं और कृषि को घाटे का सौदा बना रहे हैं। माना कि किसानों की व्यापक हितचिंता में सरकार की ओर से लगातार अनेक कदम उठाए जा रहे हैं। सवाल यह है कि क्या ये कदम महज औपचारिक हैं क्योंकि वास्तविक असर तो कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा। प्रश्न ये भी हैं कि प्रदेश में किसानों के पास खेती के अलावा और कौन से विकल्प हैं? तूफान, आग, ओलावृष्टि, अत्यधिक ठंड, बीमारी या बरसात के कारण यदि फसल नष्ट हो जाए तो छह माह तक दो वक्त की रोटी और अगली फसल की बुआई के लिए खाद-बीज का जुगाड़ वह कैसे करेगा? जोत घट रही है, फसल की उत्पादन लागत बढ़ रही है, बाजार में उचित मूल्य मिल नहीं रहा, ऐसे में वह आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर बनने की सोच भी कैसे सकता है? सरकार योजना बनाने से पहले इन पहलुओं पर विचार करे तो योजना का स्वरूप निश्चित तौर पर वृहद और सकारात्मक दिखाई देगा। सरकार इस तथ्य को झुठला नहीं सकती कि फसल खराब होने पर कोई विकल्प न होने से किसानों में भी आत्महत्या की प्रवृत्ति घर कर चुकी है। हाल के महीनों में 15 से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके। महाराष्ट्र, विदर्भ जैसी परिपाटी यहां आरंभ होना गंभीर चिंता का विषय है। इससे यह आभास भी हो रहा है कि समृद्ध राज्य हरियाणा की वास्तविक तस्वीर और सरकारों के दावे विरोधाभासी हैं। किसानों को जागरूक करने का समय आ चुका, उनकी मानसिकता में ऐसा बदलाव लाया जाए ताकि वे केवल कृषि पर ही आश्रित न रहें, कृषि के साथ अन्य विकल्प अपनाने की कुछ पहल वे खुद करें, कुछ सरकार आगे बढ़े। हरियाणा से संबद्ध केंद्रीय मंत्री और सत्ताधारी पार्टी के सांसद के बयानों के गूढ़ अर्थ समझे जाने चाहिए, तभी धरतीपुत्र को कृषि प्रधान राज्य में खुशहाल बनाना संभव हो पाएगा।

[स्थानीय संपादकीय: हरियाणा]