चर्चित आइएएस अधिकारी अशोक खेमका ने लंबी अदालती प्रक्रियाओं को तीव्र गति से निपटाने के लिए नया फार्मूला खोज निकाला है। संपत्ति विवाद में पेशी पर न आने वाले एक पक्ष को अब वाट्सएप के माध्यम से समन भेजने के आदेश दिए हैं। भले ही इसकी कानूनी पेचीदगियों को अभी समझा जाना आवश्यक है लेकिन लंबित अदालती मामलों में यह कदम पूरी प्रक्रिया को गति देने की उम्मीद अवश्य जगा रहा है। कुछ मामलों में देखा गया है कि एक पक्ष जान-बूझकर मामलों को लंबित करता रहता है और कानून की पेचीदगियों का फायदा उठाकर जल्द फैसला नहीं आने देता। इसके चलते भी अदालतों पर काम का बोझ बढ़ता रहता है। भले ही कानूनविदों की इस पर अलग-अलग राय है पर न्यायिक प्रक्रियाओं में इस इलेक्ट्रॉनिक तकनीक के इस्तेमाल पर बहस अवश्य शुरू हो चुकी है। अभी तक मेल या फैक्स ही कोर्ट के आदेश भेजने के लिए इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के तौर पर स्वीकृत रहे हैं।
इन आदेशों के बाद सबसे बड़ी चर्चा इस बात पर है कि क्या फोन नंबर की व्यक्ति की पहचान के तौर पर स्वीकार्यता है। अगर ऐसा पुष्ट हो जाए तो फिर इस तकनीक को आगे बढ़ाने में कोई खामी नजर नहीं आती लेकिन अभी देश में फोन नंबर को व्यक्ति की पहचान के तौर पर मान्यता नहीं मिली है। इसीलिए इसकी स्वीकार्यता पर भी सवाल उठना लाजिमी है। इस बीच एक बात सभी स्वीकार कर रहे हैं कि अदालतों की प्रक्रिया में तेजी लाने की तुरंत आवश्यकता है और इसे देश की सर्वोच्च अदालत भी स्वीकार कर चुकी है। ऐसे में व्यवस्था के भीतर से ही कुछ उपाय खोजने होंगे। चूंकि कई केस सालों साल अदालतों में लंबित पड़े रहते हैं और न्यास की आस में कई बार पीढ़ियां तक बदल जाती हैं। यही वह वजह है कि अदालतों पर लंबित मामलों का बोझ भी लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसे में तुरंत आवश्यकता इस बात की है त्वरित कार्यवाही के लिए विशेष अदालतों को गठन हो। जघन्य मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक के आधार पर हो ताकि न्याय की देरी का फायदा अपराधी तत्व न उठा सके। एक आदेश ने फिर से व्यवस्था को सोचने पर मजबूर तो कर ही दिया है। उम्मीद करें कि इस बहस से ही नई राह अवश्य निकलेगी।

[ स्थानीय संपादकीय : हरियाणा ]