मूलभूत सुविधाओं के अभाव में आज भी एक बड़ी आबादी अपने कंधे पर मीलों मरीजों को ढोने को विवश है। न सड़क है, न अस्पताल और न ही वाहनों की सुविधा। बाढ़ प्रभावित इलाकों में यह समस्या आज भी गंभीर बनी हुई है। सुपौल जिले के सरायगढ़-भपटियाही प्रखंड से आई एक खबर के अनुसार इस क्षेत्र के दर्जनों गावों के लोग सदर अस्पताल पहुंचने के लिए बीमार को कंधे पर लादकर पंद्रह किलोमीटर की यात्र करते हैं। यह क्षेत्र कोसी नदी से घिरा है।

बारिश के दिनों में क्या दशा होती होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सिविल सर्जन बताते हैं कि तटबंध के अंदर अस्पताल की जरूरत के लिए अब तक उन्हें कोई आवेदन प्राप्त नहीं हुआ, ताकि सरकार को लिखा जा सके। इस हालात में यहां के लोगों की जागरूकता का स्तर भी समझा जा सकता है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि आज भी लोग बीमार पड़ने पर दवा से ज्यादा ओझा-गुनी के टोटके पर विश्वास करते हैं। यह आबादी वर्षो से इसी दशा को जी रही है। यह सिर्फ सुपौल की कहानी नहीं, बल्कि उन सभी तटबंध के अंदर बसी आबादी की है, जो आवश्यक न्यूनतम सेवाओं से वंचित है।

कल्पना की जा सकती है कि टीकाकरण और समय-समय पर बीमारियों से बचाव के लिए दी जाने वाली खुराक यहां के बच्चे ले पाते होंगे या नहीं। विचार करें तो ऐसे इलाकों में निवास करना लोगों की विवशता है। खेती-बारी छोड़कर अन्यत्र नहीं जा सकते। अगर सड़क बनाई भी जाए, तो हर साल आने वाली बाढ़ से सुरक्षा संभव नहीं है। इन हालातों में चाहे बाढ़ हो या सूखा, चलंत सुविधाओं का सहारा लिया जा सकता है। गांवों तक पहुंच के लिए नई तकनीक विकसित की जा सकती हैं। हाल ही आई एक रिपोर्ट के अनुसार दुर्गम क्षेत्रों में पहुंचने के लिए मोटरसाइकिल एंबुलेंस विकसित कर ली गई है। छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में ली जा रही इसकी सेवाओं का अध्ययन किया जा सकता है। जरूरत है प्रदेश में बसी ऐसी आबादी को चिन्हित कर विशेष योजना बनाने की, ताकि पिछड़ापन हावी न हो।

(स्थानीय संपादकीय बिहार)