करीब एक हजार करोड़ रुपये के चारा घोटाले में पहले ही दोषी करार दिए गए लालू यादव के लिए यह नई मुसीबत है कि इसी मामले में उनके खिलाफ आपराधिक साजिश का भी केस चलेगा। वह पहले से तमाम विवादों से घिरे हैं। चंद दिनों पहले तक वह अनुचित तौर-तरीकों से संपत्ति अर्जित करने के आरोपों से दो-चार थे, फिर उनकी और जेल में बंद माफिया सरगना शहाबुद्दीन की बातचीत का टेप सामने आ गया। इस सनसनीखेज मामले में वह कोई सफाई पेश करते कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आ गया कि चारा घोटाले में उन्हें कुछ और मामलों का सामना करना होगा। यह उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने लालू यादव के खिलाफ आपराधिक साजिश की धारा के साथ अन्य धाराएं हटाने के हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए उसे यह हिदायत भी दी कि उसे कानून के तय नियमों का पालन करने के प्रति सजग रहना चाहिए था। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने लालू यादव के खिलाफ आपराधिक साजिश और अन्य मामलों का निपटारा नौ माह में करने का निर्देश दिया। ऐसा कोई निर्देश इसलिए आवश्यक था, क्योंकि इस घोटाले की सुनवाई में कुछ ज्यादा ही समय खप रहा है। सीबीआइ ने चारा घोटाले में लालू यादव और अन्य के खिलाफ 1997 में आरोप पत्र दायर किया था। इस पर यकीन करना कठिन है कि इतने गंभीर मामले में बीस साल बाद भी अंतिम फैसला आना शेष है। जरूरी केवल यह नहीं है कि लालू यादव और अन्य के खिलाफ चारा घोटाले से जुड़े जो भी मामले हैं वे नौ माह में निस्तारित हों, बल्कि यह भी है कि विशेष अदालत के फैसलों पर ऊंची अदालतें भी जल्द निर्णय सुनाएं।
यह ठीक नहीं कि पहले तो विशेष अदालतें भी फैसला सुनाने में लंबा समय लें और फिर ऊंची अदालतें भी तत्परता का परिचय देना जरूरी न समझें। नेताओं, नौकरशाहों और अन्य रसूख वाले लोगों के मुकदमें में तो यह खास ध्यान रखा जाना चाहिए कि उनके मामलों का निपटारा प्राथमिकता के आधार पर यथाशीघ्र हो। लालू यादव को चारा घोटाले के एक मामले में सीबीआइ की विशेष अदालत ने 2013 में पांच साल की सजा सुनाई थी। करीब दो माह बाद उन्हें जमानत मिल गई और फिर लगभग एक साल बाद हाईकोर्ट ने उन पर से कुछ धाराएं हटाने का फैसला दिया। इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने में करीब तीन साल लग गए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ को उसकी सुस्ती के लिए फटकार लगाई, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि कई बार अदालतों के स्तर पर भी विलंब होता है। जरूरत से ज्यादा विलंब न्यायपालिका की साख को प्रभावित करने के साथ ही आरोपियों की भी मुसीबत बढ़ाता है। फिलहाल लालू यादव अभियुक्त हैं और चूंकि उन्हें पांच साल की सजा सुनाई गई है इसलिए वह चुनाव भी नहीं लड़ सकते। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उनकी प्रतिक्रिया कुछ भी हो, यह खुद उनके हित में है कि उनसे जुड़े मामलों में अंतिम फैसला जल्द आए। हालांकि उनके खिलाफ आए फैसले से बिहार की राजनीति पर भी असर पड़ सकता है, लेकिन यह न्यायपालिका की चिंता का विषय नहीं हो सकता। उसकी चिंता का विषय तो सिर्फ समय पर न्याय देना होना चाहिए।

[ मुख्य संपादकीय ]