बेटा अगर कुल का दीपक है तो बेटी कुल की ज्योति। यह कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि बेटी अनमोल है। लेकिन हिमाचल प्रदेश के परिदृश्य में देखा जाए तो आंकड़े इसकी पुष्टि नहीं करते। समय बदलने के साथ सोच में बदलाव जरूर आया है, लेकिन उतना नहीं, जिसे संतोषजनक माना जा सके। अभी प्रदेश के अधिकतर जिलों में लिंगानुपात के अंतर की जो स्थिति है, उससे यही झलकता है कि शक्तिपीठों की धरती पर बेटियों को बोझ समझा जा रहा है। पहाड़ में महिला-पुरुष लिंगानुपात में यहां काफी अंतर देखने को मिल रहा है। लिंगानुपात में सबसे खराब स्थिति वाले देश के 100 जिलों में हिमाचल प्रदेश का एक जिला ऊना भी शामिल है। वह जिला, जहां शक्तिपीठ मां चिंतपूर्णी का मंदिर स्थित है। बाल विकास परियोजना अम्ब द्वारा हाल ही में करवाए सर्वेक्षण में सामने आया है कि मां चिंतपूर्णी के निवास स्थान वाली छपरोह पंचायत में लड़कियों की संख्या 686 तक पहुंच गई है। हलके की 51 पंचायतों में सिर्फ नौ ही ऐसी हैं, जहां बेटियों की संख्या बेटों के मुकाबले अधिक है। बेटियों को अनमोल मानने के चाहे कितने ही दावे कर लिए जाएं लेकिन ऐसे तथ्य सामने आना शर्मनाक है। यह स्थिति न केवल समाज के लिए शर्मनाक है बल्कि लोगों की पुरुषवादी सोच पर भी सवाल खड़ा करती है। यह समझ से परे है कि क्यों लोग बेटी के जन्म को स्वीकार नहीं कर पाते। बेटी के जन्म की खबर मिलने पर चेहरे की खुशी अचानक गायब होने लगती है। इसमें दोष सिर्फ पुरुषों का ही नहीं बल्कि महिलाएं भी कम जिम्मेदार नहीं है। दादी तो पोता चाहिए तो नानी को दोहता। दोहती-पोती को कोई नहीं पाना चाहता। पहली संतान के तौर पर भी स्वाभाविक पसंद बेटा ही होता है। घर की चारदीवारी में महिलाओं पर होने वाले अपराधों में महिलाओं की भूमिका अधिक रहती है। पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता से निकलने का हौसला कब आएगा, इस सवाल का जवाब मिलना भी मुश्किल है। बेटियां तभी अनमोल हो सकेंगी, जब समाज उनकी कद्र करने लगेगा। बेटों को प्राथमिकता देने के चलन में उन्हें मौके ही नहीं मिलेंगे तो वे कैसे खुद को साबित कर पाएंगी। घर की चारदीवारी में महिलाओं को बंद रखने से कुछ नहीं होने वाला। उनमें भी उड़ान भरने की ललक है, लेकिन मौका तो समाज को ही देना होगा। बेटी है अनमोल, मेरी लाडली व बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे अभियानों की सार्थकता तभी है जब लोगों की सेच बदले। सोच बदली है, लेकिन कुछ लोगों में बदलाव का अर्थ यह नहीं कि समाज बदल गया है। जरूरी है कि पहले खुद को बदलें फिर लोगों को। सिर्फ नारों से काम नहीं चलने वाला। नारी सशक्त होगी, तभी समाज सशक्त होगा।

[ स्थानीय संपादकीय : हिमाचल प्रदेश ]