केंद्र सरकार ने आपराधिक गतिविधियों में लिप्तता के आरोपों का सामना कर रहे जनप्रतिनिधियों के मामलों का निस्तारण करने के लिए विशेष अदालतें गठित करने का जो प्रस्ताव सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश किया उस पर जल्द फैसले की उम्मीद की जाती है, क्योंकि इस मसले पर पहले ही देर हो चुकी है। यह अच्छा हुआ कि पहले दागी नेताओं के मामलों की सुनवाई की अलग से व्यवस्था करने के सुझाव से असहमत सुप्रीम कोर्ट अब यह महसूस कर रहा कि राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम लगाने की आवश्यकता है और यह काम दागी जनप्रतिनिधियों के मामलों के निस्तारण पर ध्यान देकर ही किया जा सकता है। फिलहाल यह कहना कठिन है कि सुप्रीम कोर्ट विधि मंत्रालय के प्रस्ताव पर सहमत होता है या नहीं, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि गंभीर आरोपों से घिरे नेता विधानमंडलों में आसीन रहें। विधानमंडलों में ऐसे नेताओं की मौजूदगी राजनीति के अपराधीकरण को बल देने का ही काम करती है। एक आंकड़े के अनुसार इस समय करीब डेढ़ हजार सांसद और विधायक ऐसे हैैं जो आपराधिक मामलों से घिरे हैैं। यह आंकड़ा इन नेताओं के चुनावी हलफनामे के आधार पर तैयार किया गया है। इससे इन्कार नहीं कि तमाम विधायक एवं सांसद ऐसे हैैं जिन पर संगीन आरोप हैैं, लेकिन सभी को एक ही तराजू से नहीं तौला जा सकता। कई मामले सामान्य किस्म के भी हो सकते हैैं। विडंबना यह है कि आपराधिक मामले चाहे सामान्य हों या गंभीर, उनके निस्तारण की गति धीमी ही रहती है। एक समस्या यह भी है कि कई बार विशेष और यहां तक कि फास्ट ट्रैक अदालतें भी मामलों का निस्तारण करने में लंबा समय ले लेती हैैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि न्यायिक प्रक्रिया के तौर-तरीकों में अपेक्षित बदलाव और सुधार नहीं हो पा रहा है। परिणाम यह है कि हर तरह के मुकदमों का अंबार लगता जा रहा है।
आज स्थिति यह है कि एक ओर सरकार में बैठे लोग बड़ी संख्या में लंबित मुकदमों का उल्लेख करते रहते हैैं और दूसरी ओर सरकारें ही अपने लोगों के खिलाफ मुकदमेबाजी में उलझती रहती हैैं। क्या यह विचित्र नहीं है कि सबसे बड़ी मुकदमेबाज राज्य सरकारें ही हैैं? बेहतर हो कि जहां सरकारें यह देखें कि नौकरशाह बात-बात पर अदालत पहुंचने से बाज आएं वहीं न्यायपालिका भी मामलों के जल्द निस्तारण के वैकल्पिक तौर-तरीके खोजे। इसके तहत आपराधिक मामलों के साथ-साथ अन्य सभी तरह के मामलों के त्वरित निस्तारण पर ध्यान दिया जाना चाहिए। हालांकि एक अर्से से यह महसूस किया जा रहा है कि विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग-अलग न्यायाधिकरण बनाए जाने की जरूरत है, लेकिन कोई नहीं जानता कि इस दिशा में आगे क्यों नहीं बढ़ा जा रहा है? चंद दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने एक सम्मेलन में इस पर जोर दिया था कि विवादों के निपटारे की वैकल्पिक प्रणाली के तौर पर संस्थागत मध्यस्थता महत्वपूर्ण साबित होगी। उनका यह भी मानना था कि मध्यस्थता के जरिये विवादों को सुलझाने में अधिकतम निपटारे और न्यूनतम निपटारे के सिद्धांत के हिसाब से काम किया जाना चाहिए। बेहतर हो कि अब ऐसे सभी विचारों को अमल में लाया जाए।

[ मुख्य संपादकीय ]