बीमार और तीमारदारों का इलाज के प्रति संतुष्ट होना भी आवश्यक है, सरकार और उसकी मशीनरी को यह गूढ़ रहस्य समझना होगा। ---बुधवार को राजधानी लखनऊ में किंग जार्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी के ट्रामा सेंटर में इलाज न मिलने से एक अबोध बालक ने दम तोड़ दिया। उसके परिवारीजन करीब 80 किमी दूर खैराबाद से बच्चे को एंबूबैग से सांसें देते हुए ट्रामा सेंटर लाए थे। पिता के बार-बार गुहार लगाने के बावजूद किसी डाक्टर ने उसे देखना तक मुनासिब नहीं समझा। उस मां को अब इस चिकित्सा व्यवस्था पर कैसे विश्वास हो सकता है। आमतौर पर प्रदेश के किसी न किसी हिस्से में रोज ही ऐसे वाक्ये होते रहते हैं। परिवारीजन डाक्टरों पर तोहमत जड़ते हैं जबकि डाक्टर खुद पर काम का ओवरलोड होने की बात कहते हैं। उनकी यह भी सफाई होती है कि उस समय किसी अन्य गंभीर बीमार का इलाज छोड़ कर नए मरीज को देख पाना संभव नहीं था। चिकित्सक वर्ग का यह तर्क जायज है, मगर वह मरीज और उसके घरवाले क्या करें जो बहुत दूर से डाक्टर पर भरोसा करके आये होते हैं। वे तो यही मानते हैं कि डाक्टर के हाथ लगाते ही उनका मर्ज दूर हो जाएगा लेकिन, जब उन्हें निराशा मिलती है तो वे कहां जाएं।

इस सबके बावजूद चिकित्सकों पर लोगों का विश्वास है। इसीलिए तो उनको धरती के भगवान का दर्जा मिला है। शायद कुछ चिकित्सकों ने पूर्व में ऐसा संवेदी व्यवहार दिखाया होगा, तभी जनश्रुतियों में यह कहावत अपनी जगह बना पायी लेकिन, अब के हालात में तो इसे सच मानने का कोई कारण नहीं दिखता। नई सरकार के मुखिया योगी आदित्य नाथ और उनके मंत्री उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं को फिर से संवेदनशील बनाने के लिए कमर कसे हुए हैं। गुरुवार से पूरे प्रदेश में टीकाकरण अभियान शुरू किया गया है, इसकी अगुआई खुद मुख्यमंत्री पूर्वाचल से कर रहे हैं। न्याय से ज्यादा जरूरी होता है न्याय होते हुए दिखाई देना, इसी तरह इलाज के साथ-साथ इलाज करने वालों का हमदर्द दिखना भी आवश्यक है। बीमार और तीमारदारों का इलाज के प्रति संतुष्ट होना भी आवश्यक है, सरकार और उसकी मशीनरी को यह गूढ़ रहस्य समझना होगा। मेडिकल महकमे को अपनी कार्य संस्कृति, कार्यव्यवहार और कार्यक्षमता में बदलाव लाना ही होगा। 'मीठा न दे तो कम से कम मीठा तो बोल दे।'

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]