अपनी समस्याओं को लेकर आंदोलित हो रहे किसानों को संतुष्ट करने के लिए केंद्र सरकार ने उन्हें सस्ती दर पर बैंकों से कर्ज लेने की योजना आगे भी जारी रखने का जो फैसला किया उससे कुछ ठोस हासिल होने की उम्मीद कम ही है। नि:संदेह यह निर्णय किसानों को थोड़ी राहत अवश्य देगा, लेकिन इससे न तो उनकी समस्याओं का सही हल निकलने वाला है और न ही खेती की दशा सुधरने वाली है। यदि तीन साल बाद भी केंद्र सरकार के नीति-नियंता यह साधारण सी बात नहीं समझ सके हैं कि किसानों की मूल समस्या कृषि उपज की लागत भी वसूल न हो पाना है तो फिर यह कहना कठिन है कि वे खेती और किसानों का भला करने में सक्षम होंगे। किसी समस्या का उचित समाधान तब मिलता है जब उसकी सही तरह पहचान की जा सके। यह निराशाजनक है कि बीते तीन सालों में ऐसे कोई उपाय नहीं किए जा सके हैं कि किसानों को उनकी उपज का इतना मूल्य मिले कि वे लागत निकालने के साथ अपना जीवन-यापन करने में सक्षम रहें। भले ही फसल बीमा की नई योजना कारगर हो, लेकिन यह तो फसल खराब होने की स्थिति में ही प्रभावी है। आज तो देश के ज्यादातर किसानों की समस्या यह है कि उन्हें अपनी अच्छी उपज के उचित मूल्य नहीं मिल रहे हैं। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि उपज खराब हो तब भी किसान संकट से घिरे और उपज अच्छी होने पर भी। इस मामले में यह कहने से काम नहीं चलने वाला कि सरकार ने कई कृषि उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर दिए हैं, क्योंकि सरकारी तंत्र खुद पूरी उपज खरीदने की स्थिति में नहीं और व्यापारी कम से कम मूल्य पर खरीद के इच्छुक होते हैं।
ऐसे निर्देश देखने-सुनने में अवश्य अच्छे लगते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर खरीद की इजाजत नहीं होगी, क्योंकि कई बार व्यापारी खरीद ही बंद कर देते हैं और किसान इस स्थिति में नहीं होते कि अपनी उपज घर में रख सकें। सरकारी तंत्र कृषि उपज खरीदने में सक्षम इसलिए नहीं कि न तो अन्न भंडारण की पर्याप्त क्षमता है और न ही जरूरत भर के कोल्ड स्टोरेज। कोई नहीं जानता कि कोल्ड चेन स्थापित करने की दिशा में क्या काम हुआ ताकि फल-सबिज्यों को खराब हुए बगैर एक स्थान से दूसरे स्थान भेजा जा सके। एक समस्या यह भी है कि गेहूं, धान आदि की बंपर पैदावार से सामने आने वाली समस्या से परिचित होने के बाद भी सरकार किसानों को ऐसी कोई सलाह देने की जरूरत नहीं समझ रही कि उन्हें किन फसलों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए? बेहतर होगा कि केंद्र सरकार राज्यों के साथ मिल-बैठकर पहले यह तय करे कि किसानों की मूल समस्याएं क्या हैं और उनका ठोस समाधान क्या हो सकता है? जरूरत हो तो इस पर श्वेत पत्र भी लाया जाना चाहिए। केंद्र को यह भी समझना होगा कि कर्ज माफी के मामले में राज्यों से यह कहना भर पर्याप्त नहीं कि वे ऐसा काम अपने बलबूते करें, क्योंकि यदि कर्ज माफी के चलते राज्यों की वित्तीय सेहत खराब होती है तो इससे अर्थव्यवस्था का संकट और बढ़ेगा ही।

[ मुख्य संपादकीय ]