प्रदेश में शराब को लेकर हंगामा जारी है। सरकार को इस विषय की गंभीरता को समझते हुए मामले के समाधान की दिशा में कदम उठाने चाहिए।
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प्रदेश में शराब पर लगातार हो रहा हंगामा चिंता का विषय है। जिस तरह से मातृशक्ति प्रदेश भर में शराबबंदी को लेकर मोर्चा खोले हुए है, उससे समाज में इसके दुष्प्रभाव को समझा जा सकता है। शराबबंदी को लेकर सरकार अपनी लाचारगी जाहिर कर चुकी है। ठीक है कि यह राजस्व का एक बहुत बड़ा जरिया है, लेकिन इसके लिए जनभावनाओं को दरकिनार नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो मातृ शक्ति आवासीय इलाकों और छोटे बाजारों में शराब की दुकानों का विरोध कर रही है। महिलाओं का विरोध शराब के कारण होने वाला हुड़दंग, शराब पीकर होने वाला परिवारों में कलह और समाजिक सुरक्षा से जुड़ा है। इससे सबसे अधिक प्रभावित भी महिलाएं होती हैं। इस लिहाज से उनका विरोध अपने स्थान पर उचित है। आश्चर्यजनक यह कि विरोध के इन कारणों को जानते बूझते भी महकमा इन दुकानों को अन्यत्र स्थापित करने में नाकाम रहा है। अगर इसके पीछे शराब व्यवसायियों के हित जुड़े हों तो यह बड़ी बात नहीं। दरअसल, शराब व्यवसायी दुकानों को ऐसे स्थान पर चाहते हैं जहां ग्राहक आसानी से उपलब्ध हो। अधिक राजस्व की चाह में विभाग भी इन्हें ऐसे स्थानों पर दुकान खोलने पर मंजूरी दे रहा है जो चिंता का विषय है। हालांकि, विभाग इसके पीछे राजनीतिक दुर्भावना की बात कहकर बचने का प्रयास कर रहा है। देखा जाए तो प्रदेश में अभी शराबबंदी को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष भी, भितरखाने धड़ों में बंटा हुआ है। यह तय है कि प्रदेश में कोई भी सियासी पार्टी पूर्ण शराबबंदी नहीं चाहती। नई आबकारी नीति में विपक्ष का सबसे बड़ा मुद्दा पर्वतीय क्षेत्रों में शराब की दुकानों के खुलने व बंद होने की समय सीमा को लेकर है। तर्क यह दिया जा रहा है कि शाम को जल्दी दुकान बंद होने से अवैध शराब बिक्री को बढ़ावा मिलेगा। हालांकि, इससे एक बात साफ है कि नई शराब नीति में कहीं न कहीं कुछ तो खामी है। अगर नीति बिल्कुल पारदर्शी व साफ होती तो फिर इतना हंगामा नहीं मचता। सरकार को इन सब बिंदुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। सरकार को ऐसा रास्ता तलाशना होगा जिससे मातृशक्ति की भावना का भी सम्मान रहे और सरकार को राजस्व भी मिल सके।

[  स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड  ]