नदियों का सूखना निश्चित रूप से चिंता का विषय है। खासकर वे नदियां, जिनके जीवन का आधार जलस्रोत हैं। ऐसे में राज्य सरकार की नदियों को पुनर्जीवन की पहल उम्मीद जगाती है।
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जैव विविधता के लिए मशहूर 71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में सूखते गाड-गदेरे (नदी-नालों) से राज्य सरकार भी चिंतित है। 16 जुलाई से मनाए जाने वाले हरेला पर्व की इस बार की थीम 'नदियों का संरक्षण एवं पुनर्जीवन ' इसे तस्दीक करती है। एक माह तक चलने वाले हरेला (हरियाली पर्व) के तहत सभी जनपदों में एक-एक नदी अथवा बरसाती नाले के संरक्षण एवं पुनर्जीवन के लिए चुना जाएगा। योजना के तहत ऐसे इलाकों में जल संरक्षण में सहायक पौधों के रोपण के साथ ही स्रोत संवद्र्धन के भी उपाय होंगे। विभिन्न विभागों के साथ ही स्कूलों व जनसामान्य की भागीदारी भी इसमें सुनिश्चित कराई जाएगी। सरकार की इस पहल को सराहनीय माना जा सकता है, लेकिन पिछले अनुभवों को देखते हुए राह खासी चुनौती भरी भी है। चुनौती इस लिहाज में कि पिछले 16 सालों या फिर यूं कहिये कि अविभाजित उत्तर प्रदेश के दौर से भी नदियों के सूखने व इनके गिरते जल स्तर को लेकर पर्यावरणविदें से लेकर सरकारें लगातार चिंता जता रही हैं। बावजूद इसके नदियों को पुनर्जीवन देने के लिए ठोस पहल अभी तक नहीं हो पाई है। गुजरे सौ सालों पर ही रोशनी डालें तो उत्तराखंड क्षेत्र में ही करीब 300 नदियां सूख चुकी हैं। ये वे नदियां हैं, जिनका आधार ग्लेश्यिर नहीं, बल्कि जलस्रोत थे। ऋषिकेश की चंद्रभागा, रुड़की की सोलानी, नैनीताल की कोकड़झाला, पौड़ी की ङ्क्षहवल जैसी नदियां सूख चुकी हैं। यही नहीं, गढ़वाल और कुमाऊं दोनों ही जगह तमाम नदियों के जल स्तर में चिंताजनक ढंग से गिरावट आई है। इस सबका नतीजा ये हुआ कि राज्यभर में तमाम इलाके पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। दरअसल, विकास की अंधी दौड़ में इन जीवनदायिनी नदियों की अनदेखी कर दी गई। कहीं सड़क बनी तो नदियों को जीवन देने वाले स्रोत ही खत्म हो गए तो कहीं जलसमेट क्षेत्र (कैचमेंट एरिया) तबाह कर दिए गए। अनियोजित विकास ने स्रोत तो खत्म किए, मगर इन्हें जीवनदान देने को गंभीरता से प्रयास नहीं किए गए। ऐसे में नदियां सूखती नहीं तो क्या होता। यदि बारिश की बूंदों को सहेजने के ही यहां प्रयास होते तो शायद तीन सौ के लगभग नदियां बेमौत नहीं मरतीं। न सिर्फ पर्वतीय क्षेत्र बल्कि मैदानी क्षेत्रों का आलम भी इससे जुदा नहीं है। देहरादून शहर की रिस्पना और बिंदाल नदियों को ही देख लीजिए। एक दौर में दून की शान रही ये नदियां कब नालों में तब्दील हो गंदगी ढोने का जरिया बन गईं पता ही नहीं चला। खैर! अब जबकि सरकार ने नदियों को पुनर्जीवन देने की ठानी है तो इसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। तभी यह योजना धरातल पर फलीभूत हो पाएगी।

[  स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]