आदिवासियों को लेकर राज्य में फिलहाल राजनीति चरम पर है। लगभग सारे राजनीतिक दल वोट बैंक के लिहाज से सुविधानुसार अपनी बातें रख रहे हैं। इस आपाधापी में कुछ ऐसे भी वक्तव्य सामने आए हैं, जिससे कटुता बढ़ सकती है। कुछ मसलों पर बगैर मंथन किए बोलना बड़ी आबादी को आहत कर सकता है। कुछ ऐसी ही स्थिति एक राष्ट्रीय दल के वरीय नेता की आदिवासियों के संदर्भ में की गई टिप्पणी से पैदा हुई है। हालांकि इस बाबत स्पष्टीकरण दिया जा रहा है कि उनकी बातों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया। सवाल उठता है कि आखिरकार ऐसी स्थिति क्यों पैदा हो रही है कि सभी एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हैं? जाहिर है इसकी जड़ में आदिवासियों का बड़ा वोट बैंक है जिसपर तमाम दलों की नजर है। ऐसी परिस्थिति में हमें यह भी सोचना होगा कि राज्य के हित में क्या सही और क्या गलत है। आदिवासी संस्कृति और सभ्यता का अतीत गौरवशाली है। आज पर्यावरण को लेकर पूरे विश्व में चिंता जताई जा रही है जबकि आदिवासी समाज में प्रकृति को ही परमात्मा माना गया है। जंगल को बचाने के लिए इस समुदाय ने कुर्बानी दी है। कम से कम संसाधनों का उपयोग कर जनजातीय समुदाय के लोग गुजर-बसर करते हैं। कालांतर में इनके भोलेपन का फायदा जबरन धर्मांतरण कर उठाया गया। ऐसी शिकायतें अब भी राज्य के कई हिस्से से आ रही है। जनजातीय समुदाय को इस कुचक्र से निकालने की बजाय कुछ राजनेता इसका फायदा उठाने की कोशिश में हैं, जो सरासर गलत है।
झारखंड में फिलहाल जमीन संबंधी कानून में सरलीकरण की प्रक्रिया में राज्य सरकार लगी है। इसका विरोध हो रहा है लेकिन विरोध करने के तरीके पर सवाल उठ रहे हैं। ङ्क्षहसा का रास्ता किसी समस्या को सुलझाने की बजाय उलझन पैदा करेगा। इस स्थिति में नेतृत्व करने वाले संगठनों को चाहिए कि वे बातचीत के जरिए मामले का समाधान करने को आगे आएं। आपसी समन्वय से हर मसले को सुलझाया जा सकता है। संशोधन की पक्षधर राज्य सरकार ने इस पक्ष में दलीलें दी हैं जिसका कई प्रमुख आदिवासी नेताओं समेत बुद्धिजीवियों ने समर्थन किया है। उनकी बातों को सिरे से नकारा नहीं जा सकता। विकास में जनजातीय समुदाय को भी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। आधारभूत संरचना के निर्माण के लिए जमीन आवश्यक है। ऐसे में सरकार अगर कानून में सरलीकरण करना चाहती है तो इस प्रक्रिया को राजनीतिक नफा-नुकसान के चश्मे से देखना गलत होगा। बेहतर होगा कि विरोधी पक्ष संयम बरते और ऐसी किसी कार्रवाई से परहेज करे जो राज्य की विधि-व्यवस्था को प्रभावित करता है। सरकार के प्रयास को शक की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। प्रशासन को भी इस बाबत पहल करनी चाहिए ताकि विश्वास के माहौल में सकारात्मक प्रयास को अंजाम तक पहुंचाया जा सके।

[ स्थानीय संपादकीय : झारखंड ]