फ्लैश---फिलहाल तो इस आक्रोश को स्थानीय राजनीति की सेंध से बचाने की चुनौती पहले है। ---उत्तर प्रदेश के कई जिलों में शराब की दुकानों में तोड़फोड़ और उपद्रव के पीछे महिलाओं का आक्रोश तो है ही, इसके पीछे सामाजिक असुरक्षा की वह भावना भी है जो उन्हें लंबे समय से सालती रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में देशी शराब की दुकानों पर विरोध-प्रदर्शन की घटनाएं अधिक हो रही हैं। ऐसा शायद इसलिए कि निम्न वर्ग के परिवार इससे सीधे तौर पर प्रभावित होते हैं। मीरजापुर की एक महिला का यह वक्तव्य कि मेरे यहां बच्चों के दूध से पहले बोतल लाकर रख दी जाती है, महिलाओं की इस पूरी व्यथा को सामने रख देता है। इस पूरे मामले के दूसरे पहलू भी हैं जो किसी भी संस्था, व्यक्ति या संगठन को सुरक्षा के सांविधानिक अधिकार देते हैं और शराब के दुकानदारों को भी वही हासिल हैं। सहज ही सवाल खड़ा होता है कि आक्रोश व्यक्त करने के लिए क्या कानून को हाथ में लिया जा सकता है। निश्चित तौर पर इसका जवाब नहीं में मिलेगा। फिर शराब की दुकानों में तोड़फोड़ को जायज भी नहीं ठहराया जा सकेगा, भले ही प्रभावित महिलाओं के प्रति समाज की पूरी सहानुभूति क्यों न हो। वैसे भी आंदोलन की दिशा हिंसक होने पर उसके प्रभाव क्षीण होने लगते हैं। प्रदेश में शराब की 27 हजार दुकानें हैं और कई सालों से चल रही हैं फिर अचानक ही यह गुस्सा क्यों। किसी भी व्यवस्था के प्रति विरोध तब तक नहीं खड़े होते जब तक कि वह नियमों के तहत चलती रहे। स्कूलों, धार्मिक स्थलों और अस्पतालों के निकट ऐसी दुकानों का निषेध है। लोगों में इन दुकानों पर होने वाली अराजकता के प्रति गुस्सा तो पहले भी था लेकिन, जब उन्हें लगा कि सुप्रीम कोर्ट भी उनकी भावनाओं के साथ है तो आक्रोश उबल पड़ा। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर 5300 दुकानों को हाईवे से हटाया जाना है, जिन्हें कहीं न कहीं स्थान देना सरकार की भी मजबूरी है क्योंकि ये दुकानें कानून के तहत हासिल की गई हैं। देश के अन्य प्रांतों में शराब बंदी के लिए लंबे आंदोलन चलाए गए हैं और सफल भी हुए हैं। फिलहाल तो इस आक्रोश को स्थानीय राजनीति की सेंध से बचाने की चुनौती पहले है।
 [ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]