अभी पांच साल पहले तक हरियाणा में लड़कों के मुकाबले लड़कियां इतनी कम थीं कि हरियाणवी कहने में अपराध बोध होता था। सन 2011 के जनसंख्या के आंकड़े हैरतअंगेज थे। सन 2014 में महेंद्रगढ़, रेवाड़ी, झज्जर, भिवानी, सोनीपत, गुरुग्र्राम, रोहतक, पलवल, फतेहाबाद, कैथल आदि कई जिले ऐसे रहे, जहां सैकड़ों गांवों में एक भी बेटी ने जन्म ही नहीं लिया। लेतीं भी कैसे? उन्हें जन्म लेने ही नहीं दिया गया। इस स्थिति में कुछ बदलाव आना शुरू हुआ दो वर्ष पहले, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 जनवरी 2015 को पानीपत में बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान की शुरुआत की। प्रदेश सरकार ने भी इस अभियान को संजीदगी से लिया। इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा और प्रति एक हजार बेटों पर बेटियों की संख्या अब प्रदेश में 900 से अधिक हो गई है। ये आंकड़े यह साबित करते हैं कि बदलाव आ रहा है, लेकिन यह भी सच है कि समाज की सोच में उतना बदलाव नहीं आया है, जितना आना चाहिए था। कन्या भ्रूणहत्या का पाप लाख प्रयासों के बावजूद नहीं रुक पा रहा है। लोग बेटियों के बजाय बेटे को वरीयता देते हैं।
उनकी पढ़ाई लिखाई से ज्यादा चिंता उनके दहेज की होती है। लोगों को लगता है कि बेटी तो चली जाएगी। बेटा वृद्धावस्था का सहारा बनेगा। यह बात लोग नहीं सोच पाते कि वृद्धाश्रम में बेटों के ही माता-पिता रहते हैं। जब तक हम बेटियों के प्रति ऐसी मानसिकता से मुक्त नहीं होंगे, तब तक बेटियों की जन्मदर में थोड़ा बहुत इजाफा भले कर लें, लेकिन वह वातावरण नहीं दे सकते जो उन्हें आसमां उड़ान भरने दे। इसके लिए हर व्यक्ति को सोच बदलनी होगी। घर में बेटियों को प्यार और सुरक्षित वातावरण तो देना ही होगा, बाहर भी उनके साथ ऐसा व्यवहार करना होगा कि वे सड़क पर चलते हर व्यक्ति की आंखों में पिता, भाई जैसा स्नेह महसूस कर सकें। जब तक ऐसा वातावरण हम नहीं बना पाएंगे, तब तक बेटियां उपेक्षित ही रहेंगी। जाहिर है यह बहुत मुश्किल काम है, लेकिन उम्मीदों का नवजागरण होने लगा है। हरियाणावी बेटियां कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं। लोग बेटियों को सक्षम और मजबूत बनाने लगे हैं, हालांकि ऐसे लोगों की संख्या अभी समाज में बहुत कम है। बावजूद इसके यह एक शुभ शुरुआत तो है ही, जो परवान चढ़ेगी और बेटी पढ़ेगी, बेटी बढ़ेगी।

[ स्थानीय संपादकीय : हरियाणा ]