प्रदेश में भाजपा सरकार का आधा कार्यकाल पूरा हो चुका है। इसके बाद से ही सरकार के तेवर और तीखे हुए और अफसरशाही पर शिकंजा कसने के कई स्तर पर प्रयास भी हुए। अभी तक विपक्ष लगातार आरोप लगा रहा है कि अफसर बेकाबू हैं और सरकार का उन पर कोई नियंत्रण नहीं है। विपक्ष के साथ-साथ भाजपा संगठन से भी ऐसी ही कई सुर निकले। सरकार के भीतर भी कुछ विरोध के स्वर सुनाई दिए। ऐसे में सरकार ने गति पकड़ते हुए अफसरशाही पर शिकंजा कसने की कवायद कई स्तर पर शुरू कर दी है। हाल ही में दिग्गज अफसरों को बदला गया। मंत्रियों को विभाग के अनुसार तबादले का जिम्मा सौंपा गया। उसके बावजूद भी अफसरों के खिलाफ शिकायतें कम नहीं हो रही थीं। अब सरकार ने निर्देश दिया है कि मुख्य सचिव की इजाजत के बिना कोई भी जिला उपायुक्त अपना स्टेशन नहीं छोड़ेंगे। खासकर एक दिन से अधिक बाहर रहने के लिए यह अति आवश्यक है।
सरकारी कार्यालयों में पांच दिन ही कार्य होता है। ऐसे में अधिकतर जिला अधिकारी स्टेशन छोड़ देते थे। नतीजा शिकायतें बढ़ जाती थी। अधिकारी मिलते नहीं थे तो लोगों की नाराजगी बढ़ जाती थी। ऐसे ही आदेश पुलिस अधीक्षकों के लिए भी हैं। डीजीपी को आदेश दिए गए हैं कि सभी पुलिस अधीक्षक नियमित तौर पर जन सुनवाई करें और शिकायतों का समाधान करें। अफसरों को जिम्मेवारी देने के साथ यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि उन्हें निर्णय लेने का अधिकार भी दिया जाए। अभी तक सरकार ने अधिकारियों को काम करने की आजादी दी है। आवश्यक है कि उनकी जिम्मेवारी तय कर दी जाए। क्यों नहीं चोरियों के लिए उस क्षेत्र के थाना प्रभारी को जिम्मेवार ठहराया जा सकता? क्यों नहीं बढ़ते अपराध और अवैध हथियारों के इस्तेमाल के लिए पुलिस अधीक्षक को क्यों नहीं सीधे जिम्मेवार ठहराया जाता? लंबित योजनाओं के लिए उपायुक्त से सवाल पूछ जाएंगे तो संभव ही नहीं कि कहीं काम लटकेंगे। सरकार को व्यवस्था में बदलाव लाना है तो अपनी नीतियां स्पष्ट कर दे और उसके बाद अधिकारियों को लक्ष्य दे दिए जाएं। जो लक्ष्य पूरा करें वह सम्मानित हों और लक्ष्य पूरा न करने वालों से सवाल पूछे जाएं।

[ स्थानीय संपादकीय : हरियाणा ]