न्यायिक सक्रियता को लेकर लोकसभा में पक्ष-विपक्ष के सांसदों में भले ही एकजुटता दिखी हो, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कई बार विधायिका एवं कार्यपालिका के रुख-रवैये के कारण भी अनेक मामले उच्चतर न्यायपालिका तक पहुंचते हैं। सुप्रीम कोर्ट के क्रिकेट बोर्ड के संचालन से लेकर मेडिकल कालेजों में दाखिले तक के नियम बनाने पर आपत्ति जताने वालों को यह पता होना चाहिए कि उक्त मामलों में विधायिका एवं कार्यपालिका से जो अपेक्षित था वह नहीं किया गया। यदि विधायिका और कार्यपालिका अपना काम सही तरह करें और खास तौर पर जनहित के मामलों पर पर्याप्त संवेदनशीलता एवं सजगता का परिचय दें तो फिर जनहित याचिकाओं के सिलसिले को एक बड़ी हद तक थामा जा सकता है। यह एक तथ्य है कि जनहित याचिकाओं के रूप में तमाम वे मामले सुप्रीम कोर्ट अथवा हाईकोर्ट पहुंच रहे हैं जो मूल रूप से कार्यपालिका अथवा विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आते हैं और उन्हें ही प्राथमिकता के आधार पर सुलझाने चाहिए। बात चाहे पुलिस सुधारों की हो अथवा राजनीतिक या फिर चुनाव संबंधी सुधारों की, इन मामलों में यदि कार्यपालिका और विधायिका ने सक्रियता दिखाई होती तो न्यायपालिका को दखल देने की जरूरत क्यों पड़ती? आखिर क्या कारण है कि सभी राजनीतिक दल पुलिस सुधारों की कोरी चर्चा करने तक सीमित हैं? इसी तरह किसी को बताना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट को नदियों के प्रदूषण से लेकर शहरी इलाकों में बढ़ते वायु प्रदूषण की चिंता क्यों करनी पड़ रही है?
पक्ष-विपक्ष के सांसदों को इससे परिचित होना चाहिए कि ऊंची अदालतों के पास ढेर से वे मामले भी पहुंच रहे हैं जिन पर शासन-प्रशासन या फिर संसद एवं विधानसभाओं को संज्ञान लेना चाहिए। एक अर्से से यह देखने में आ रहा है कि संसद और विधानसभाओं में राजनीतिक दल जटिल मसलों का निपटारा करने से बचते हैं। अब तो वे हंगामें में अधिक वक्त जाया कर रहे हैं। कई बार तो राजनीतिक दल यह चेष्टा करते हुए भी दिखते हैं कि समस्या विशेष को न्यायपालिका ही निपटाए तो बेहतर। क्या यह विचित्र नहीं कि तीन तलाक जैसी गंभीर सामाजिक समस्या पर राजनीतिक दल संसद में कायदे से चर्चा करने के लिए भी तैयार नहीं? इस विषय पर वे देश को कोई सही संदेश देने में इसलिए नाकाम रहे, क्योंकि उन्हें अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों की अधिक परवाह थी। यह सही है कि विधायिका और कार्यपालिका की तरह से न्यायपालिका की भी अपनी एक सीमा है और कई बार ऊंची अदालतें फालतू की जनहित याचिकाएं सुनती नजर आती हैं, लेकिन दूसरों के दोष देखने का तब कोई मतलब हो सकता है जब पहले अपनी खामियों को दूर करने की कोशिश की जाए। नि:संदेह जैसी आवश्यकता न्यायपालिका में सुधारों की है वैसी ही विधायिका एवं कार्यपालिका के कामकाज के तौर-तरीकों में बदलाव लाने की भी है। बेहतर हो कि जहां संसद इस पर विचार करे कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन में क्या खामी रह गई वहीं न्यायपालिका भी इस सवाल का जवाब दे कि यह कितना उचित है कि न्यायाधीश ही अपने सहयोगियों की नियुक्ति करें? ऐसी कोई राह खोजी ही जानी चाहिए जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित हुए बिना न्यायाधीशों की नियुक्ति पारदर्शी तरीके से हो सके।

[ मुख्य संपादकीय ]