-----वस्तुत: यह व्यवस्था का सवाल तो है ही मानवीय संवेदना का मसला भी है। -----कुछ घटनाएं सरकार के दावों, घोषणाओं और सिस्टम को कटघरे में खड़ा करते हुए पूरी मानवीयता को झकझोरती हैं। किसी जिला अस्पताल में यदि किसी को शव ले जाने के लिए एबुलेंस न मिले और उसे सात साल की बच्ची के शव को शव कंधे पर रखकर साइकिल से दस किमी दूर ले जाना पड़े तो विकास के तमाम दावे झूठे नजर आने लगते हैं। आजादी के बाद के सत्तर साल में हर सरकार अस्पतालों में सभी सुविधाएं देने का ढिंढोरा पीटती रही है। फिर कौशांबी, जो कि संयोग से उप मुख्यमंत्री का गृह जिला भी है, वहीं के अस्पताल में एक व्यक्ति को अपनी भांजी के लिए शव वाहन तक क्यों नहीं मिल पाता। क्यों एक व्यक्ति को सात साल की बच्ची का शव लेकर इधर-उधर भटकना पड़ता है। वस्तुत: यह व्यवस्था का सवाल तो है ही मानवीय संवेदना का मसला भी है। अस्पतालों में आएदिन ऐसी घटनाएं सुनने को मिलती हैं कि चिकित्सकों की उदासीनता से मरीज की मौत हो गई। हाल ही में राजधानी के एक अस्पताल में प्रसव से इन्कार करने पर एक महिला की मौत के बाद लोगों का गुस्सा भड़क उठा था। चिकित्सीय पेशे से जुड़े लोगों की मानवीय संवेदनाएं मरती जा रही हैं, परिणाम स्वरूप कौशांबी जैसी घटनाएं सामने आती हैं। राज्य सरकार के मंत्री और अधिकारी इस कड़वी हकीकत को स्वीकार भले ही न करें लेकिन, सरकारी अस्पतालों में अभी भी व्यथा का कारोबार चल रहा है। किसी का कष्ट देखकर कर्मचारियों का दिल पसीजता नहीं, बल्कि वे उसमें संभावनाएं तलाशते हैं। अस्पतालों के इर्द-गिर्द दलालों की फौज कभी भी देखी जा सकती है। कहीं-कहीं तो जांच कराने से लेकर दवा दिलाने तक के रेट तय होते हैं और सरकार सिर्फ दावों का दंभ भरती रहती है। कुछ दिनों पहले ही एक अस्पताल के एक वार्ड ब्वाय का वीडियो सामने आया जिसमें वह मरीज से पैसों की मांग कर रहा था। कौशांबी में भी बृजमोहन नामक व्यक्ति को सिर्फ इसलिए शव वाहन नहीं मिल सका कि उसकी जेब में आठ सौ रुपये नहीं थे। यह सब व्यथा के कारोबार के उदाहरण हैं। सरकारें ऐसी घटनाओं को आईने के रूप में देखने से परहेज करती हैं और यही वजह है कि ऐसी घटनाएं सामने आ जाती हैं जिन्हें राष्ट्रीय शर्म की श्रेणी में रखा जा सकता है, जैसी कि कौशांबी की घटना है।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]