उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के दावों और असलियत के बीच बड़ा फर्क नजर आ रहा है। जोर देकर यह जरूर कहा जाता रहा है कि जन का स्वास्थ्य सरकार की प्राथमिकता है और इसके लिए हर स्तर पर काम किया जा रहा है। मौके-बेमौकेसुनने में इस तरह के जुमले अच्छे लगे, लेकिन धरातल पर कोई बदलाव नहीं दिखा। देहरादून के त्यूणी इलाके में डेढ़ महीने के अंतराल में चार लोग उपचार न मिलने की वजह से दम तोड़ गए। पौड़ी जिले के यमकेश्वर में गर्भवती को 108 के इंतजार में दो घंटे सड़क पर छठपटाने के बाद बाइक पर अस्पताल पहुंचाया गया। उत्तरकाशी, टिहरी और चमोली में भी इस तरह के वाकये सामने आ चुके हैं।

यह सब बताता है कि स्वास्थ्य महकमे के दावों में कितना दम है। दरअसल, यह सिर्फ घटनाएं नहीं, बल्कि राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं पर सीधे तौर पर सवाल हैं। सुधार के दावों की फेहरिस्त काफी लंबी है, टेली मेडिशन, विशेषज्ञ डाक्टरों की तैनाती, स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रही संस्थाओं के साथ समझौता, मोबाइल चिकित्सा सुविधा, मरीजों के लिए डंडी-कंडी जैसी व्यवस्थाओं का सच किसी से छिपा नहीं है। दुर्गम इलाकों में चारपाई पर लिटाकर या कुर्सी पर बैठाकर मरीज अस्पताल तक लाने का क्रम जारी है। अभी तक सरकारें कभी भी इस पर संवेदनशील नजर नहीं आई। कहने में संकोच नहीं कि स्वास्थ्य सुविधाओं के मोर्चे पर बातें ज्यादा और काम कम हुआ है। चिंता का विषय यह कि जीवन खतरे में देख भी जिम्मेदारों की तंद्रा टूट नहीं रही है। अब भी ख्वाबों की दुनिया से बाहर निकलने के गंभीर प्रयास होते नहीं दिख रहे हैं।

सवाल यह कि क्या आखिर तक ऐसा चलता रहेगा। जन की सेहत से सरकारों का सरोकार कब होगा, यह सवाल अपने आप में चिंता का विषय बनता जा रहा है। बदलाव के लिए इस स्थिति से बाहर निकलना होगा। समझना होगा कि केवल योजनाएं बनाकर बेपटरी स्वास्थ्य व्यवस्था को नहीं सुधारा जा सकता है। इसके लिए ठोस रोडमैप जरूरी है। ठीक है, संसाधनों के लिहाज से कुछ व्यावहारिक दिक्कतें भी सरकारों के सामने आती रही होंगी, लेकिन इसकी आड़ में जिम्मेदारी से पूरी तरह पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता। इस प्रवृत्ति को गलत ही कहा जाएगा। खैर, जो हुआ सो हुआ, अब भी लीक से हटकर काम करने की परंपरा शुरू की जाए तो तस्वीर का नया पहलू सामने आ सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य सरकार और उसके कारिंदे स्थिति को समङोंगे और भविष्य के लिए कदम उठाएंगे।

[स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड]