एक तरफ तो मंत्री गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की मांग कर रहे हैं, दूसरी तरफ गोसंरक्षण की प्रदेश सरकार की योजना, दावों व नीतियों में भारी विरोधाभास दिखाई देता है। गाय की नस्ल सुधारने के लिए विशेष प्रोत्साहन राशि देने की घोषणा की जाती है, गोशालाओं की संख्या व अनुदान बढ़ाने का आश्वासन दिया जाता है तो दूसरी ओर गाय को वाहनों में भरकर कटने के लिए अन्य राज्यों में भेजने के लिए केवल एक अधिकारी के दस्तखत ही पर्याप्त मान लिए जाते हैं, कोई रिकॉर्ड भी नहीं रखा जाता कि गायों को भेजने के कितने परमिट जारी किए जा चुके हैं। इससे सहज रूप से अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकारी नीति में वजन कितना व दिखावटीपन कितना है? वास्तविकता तो यही दिखाई दे रही है कि गायों का संरक्षण सरकार की प्राथमिकता में शामिल ही नहीं। गाय भेजने की परमिट नीति पर हाई कोर्ट ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई है। गोवंश की रक्षा के लिए समग्र अभियान छेडऩे की बात बार-बार की जाती है, वस्तुस्थिति को जाने बिना ही लंबे-चौड़े दावे किए जाते है पर ताजा उदाहरण यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि इस मिशन के लिए आधार तो अभी तैयार ही नहीं हुआ। कोर्ट की यह टिप्पणी गंभीर मायने रखती है कि किसी काम के लिए अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी करने के लिए अधिकारी इतने चक्कर लगवाते हैं कि जूते घिस जाएं लेकिन गाय को अन्य राज्यों में भेजने के लिए बिना रिकॉर्ड ही परमिट जारी कर दिए जाते हैं। कोर्ट ने नसीहत भी दी है कि इस प्रकार की नीति पर तत्काल रोक लगाई जानी चाहिए। व्यवस्था पर अधिकारी को अधिमान देने की नीति किसी भी प्रकार से उचित नहीं मानी जा सकती। सरकार के बारे में एक टिप्पणी अक्सर की जाती है कि यह आमतौर पर ऊपर ही देखती है, जमीन की ओर नजर कभी-कभार ही जाती है। हाल के दिनों में मंत्रियों ने जिस तत्परता के साथ गायों के संरक्षण के लिए पैरवी की है, उसे सराहनीय तो कहा जा सकता है लेकिन अपेक्षित परिणाम तभी सामने आएंगे जब आधारभूत स्तर पर गंभीरता दिखाई जाए, व्यवस्था की खामियों की पहचान कर उन्हें दूर किया जाए। यानी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं रहना चाहिए। यह अच्छा संकेत है कि राष्ट्रीय पशु के रूप में गाय की पैरवी के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के नेता सुर में सुर मिला रहे हैं, अब जरूरत है मजबूत लामबंदी की।

[स्थानीय संपादकीय: हरियाणा]