वस्तु एवं सेवा कर संबंधी जीएसटी काउंसिल ने क्षतिपूर्ति से जुड़े विधेयक के मसौदे को मंजूरी देकर उम्मीदों को बरकरार रखने का काम किया है। देर से ही सही, एक बेहतर काम हुआ। अच्छा होता कि इसके लिए इतनी बैठकों की जरूरत नहीं पड़ती। और भी अच्छा यह होता कि जीएसटी काउंसिल की इसी बैठक में अन्य संबधित विधेयकों के मसौदों पर भी कोई आम सहमति बन जाती। यदि आजादी के बाद इस सबसे बड़े कर सुधार को एक जुलाई से लागू करना है तो फिर तेजी से आगे बढ़ना आवश्यक है। चूंकि जीएसटी के मामले में सबसे महत्वपूर्ण विधेयक क्षतिपूर्ति संबंधी ही है इसलिए उस पर आम राय कायम हो जाना उल्लेखनीय है। इसी विधेयक के मसौदे पर मतभेद कहीं अधिक गहरे थे। पिछली कुछ बैठकों में मतभेद जिस तरह और बढ़ गए थे और कई राज्यों ने नोटबंदी का हवाला देकर कुछ और मांगें पेश कर दी थीं उससे यह लग रहा था कि उनकी ओर से अड़ंगा लगाने की कोशिश की जा रही है। यह अच्छा हुआ कि उदयपुर में जीएसटी काउंसिल की बैठक में कम से कम क्षतिपूर्ति विधेयक के मामले में राजनीतिक संकीर्णता का प्रदर्शन करने से बचा गया। यह विधेयक ही जीएसटी लागू होने पर राज्य सरकारोंं को होने वाली राजस्व क्षति की पांच साल तक पूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित करेगा। जीएसटी काउंसिल में यह भी तय हुआ कि राज्यों की राजस्व क्षति का आकलन करने के लिए वित्तीय वर्ष 2015-16 को आधार वर्ष माना जाएगा और साथ ही राज्यों के राजस्व में हर साल औसतन 14 प्रतिशत वृद्धि मानी जाएगी।
क्षतिपूर्ति विधेयक के मसौदे का मंजूर होना एक बड़ी बाधा पार होना है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जीएसटी काउंसिल की अगली बैठक में केंद्रीय जीएसटी, एकीकृत जीएसटी, राज्य जीएसटी और केंद्र शासित राज्यों संबंधी जीएसटी विधेयकों के मसौदों को भी हरी झंडी मिल जाएगी। इस उम्मीद के बावजूद जब तक इन विधेयकों पर संसद की मुहर नहीं लग जाती तब तक इसके प्रति सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता कि आगे कोई बाधा नहीं खड़ी होगी। अभी भी आशंकाएं बरकरार हैं, क्योंकि कुछ राजनीतिक दल जीएसटी विधेयकों को धन विधेयक के रूप में पेश करने के प्रस्ताव से असहमत नजर आ रहे हैं। यदि उनकी असहमति असहयोग में तब्दील होती है तो फिर मुश्किल होगी। बेहतर हो कि इसका फैसला जीएसटी काउंसिल में ही हो जाए कि संबंधित विधेयकों को किस रूप में संसद में पेश किया जाए। ऐसा इसलिए, क्योंकि अब लोकसभा और राज्यसभा में दिखावे की राजनीति अधिक होने लगी है। कुछ राजनीतिक दल विरोध के लिए विरोध की राजनीति को जरूरत से ज्यादा अहमियत देने लगे हैं। चूंकि आर्थिक मामलों में नारेबाजी की राजनीति के लिए कहीं कोई स्थान नहीं हो सकता इसलिए बेहतर होगा कि आगे की प्रक्रिया को सरल बनाने पर ध्यान दिया जाए। यह जरूरी है कि राज्य सरकारें उस ढांचे की तैयारी पर ध्यान दें जिसे जीएसटी लागू करना है। प्रशासनिक स्तर पर समुचित तैयारी शुरू करके ही उद्योग-व्यापार जगत को उन अनेक समस्याओं से बचाया जा सकता है जो किसी नई व्यवस्था के अमल के क्रम में सामने आती ही हैं।

[ मुख्य संपादकीय ]