पॉलीथिन से निजात पाने के लिए सरकार के साथ आम जन की भागीदारी भी सुनिश्चित करनी होगी।
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पॉलीथिन प्रदूषण को लेकर गंभीर बन चुकी स्थिति पर सिस्टम की सुस्ती और भारी पड़ रही है। नतीजतन हाईकोर्ट ने सख्ती दिखाते हुए प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों को तलब किया है। यह पहली बार नहीं है कि हाईकोर्ट को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा हो। पहले भी अदालत के आदेश के बाद सरकार ने पॉलीथिन पर प्रतिबंध लगाया, हालांकि इसके अनुपालन को लेकर चिंता नजर नहीं आई। छिटपुट अभियान अवश्य चले, लेकिन इनका कोई परिणाम सामने नहीं आ पाया। यही वजह है कि प्रदेश में आज भी धड़ल्ले से पॉलीथिन का इस्तेमाल किया जा रहा है। दरअसल, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पर्यावरण संरक्षण के सरकारी सरोकार कभी भी परवान नहीं चढ़ पाए। करोड़ों रुपये इस मद में खर्च करने के बावजूद हासिल क्या रहा, बताने की जरूरत नहीं है। बौद्धिक तबके की बहस का विषय बना पर्यावरण आम आदमी की चिंता का सबब नहीं बन पाया। उत्तराखंड में कार्यरत तमाम गैर सरकारी संगठन इस दिशा में क्या काम कर रहे हैं, कोई नहीं जानता। आलम यह है कि पॉलीथिन के ढेर सिर्फ नदी-नालों के तट पर ही नहीं, हिमालय में भी बिखरे हुए हैं। वर्ष 2015 और 2016 में गोमुख से एकत्रित किया गया सात टन पॉलीथिन का कचरा यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि निर्जन क्षेत्रों को भी इससे नहीं बख्शा गया है। हैरत देखिए की बाघों के पेट से भी पॉलीथिन मिलने लगी है। वजह साफ है उत्तराखंड के खूबसूरत नजारों को देखने के लिए आने वाले पर्यटक पॉलीथिन को इन इलाकों में फेंक रहे हैं और यह जंगल के शाकाहारी जानवरों का आहार बनने लगा है। ये जानवर जब बाघ का शिकार बनते हैं तो अनजाने ही पॉलीथिन उसके पेट में पहुंच रही है। जाहिर है इससे जैव विविधता पर संकट गहराना तय है। इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि पॉलीथिन का इस्तेमाल रोकने के लिए कई स्तर पर सक्रियता की जरूरत है। यह मामला नीति से ज्यादा नीयत का है। सरकारी स्तर पर अपनाए जाने वाले ढुलमुल रवैये को तो सख्त करने की जरूरत है ही, इसके अलावा आवश्यकता जन जागरूकता अभियान चलाने की भी है। आम जन की भागेदारी के बिना पॉलीथिन से निजात पाना आसान नहीं है। एक और तथ्य को नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए। वह यह है कि सरकार पॉलीथिन की ब्रिकी और इस्तेमाल पर तो रोक लगाने की बात कर रही है, लेकिन उत्पादन को लेकर ओढ़ी गई खामोशी हैरत में डालने वाली है। इस पर विचार किया जाना चाहिए कि यदि उत्पादन पर अंकुश लगे तो काफी हद तक पॉलीथिन के प्रचलन पर अंकुश लगाया जा सकता है।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]