मछलियों की मौत के बाद प्रशासन की तंद्रा टूटी है। जो तत्परता प्रशासन अब दिखा रहा है, वही पहले दिखाई होती तो शायद ऐसी स्थिति न आती
 तीन धर्मो की संगम स्थली रिवालसर झील में जो कुछ भी हुआ, वह नहीं होता अगर व्यवस्था में खामियां को दूर करने के लिए समय रहते कदम उठा लिए जाते। आस्था के इस केंद्र में मछलियों का मरना व्यवस्था के मुंह पर ऐसे तमाचे की तरह है, जिसकी गूंज लंबे समय तक सुनाई देती रहेगी। झील के प्रदूषित होने से अब तक करीब 50 टन से अधिक मरी हुई मछलियां निकाली जा चुकी हैं और सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। हालात ऐसे हैं कि बड़ी संख्या में मछलियां मरने से यहां बदबू फैल गई है व महामारी फैलने की आशंका बढ़ गई है। हैरानी की बात है कि मछलियों की बड़ी संख्या में मौत के बाद प्रशासन की तंद्रा टूटी है। जिस तरह की तत्परता प्रशासन अब दिखाने लगा है, अगर वही पहले दिखाई होती तो शायद ऐसी स्थिति का सामना ही नहीं करना पड़ता। विशेषज्ञ राय पर राय देते रहे और प्रशासन कागजी घोड़े दौड़ाता रहा। हकीकत में जो कदम अपेक्षित थे, वे किसी ने भी उठाने की जहमत नहीं उठाई। रिवालसर झील के अस्तित्व को बचाने के लिए सरकार से मिला पैसा ऐसे ही पड़ा रहा। झील को बचाने के नाम पर योजनाएं तो काफी बनाई गईं, लेकिन धरातल पर एक भी नहीं उतर पाई। मछलियों की मौत के लिए प्रशासन अब झील में प्रदूषण बढ़ने व ऑक्सीजन की मात्र कम होने की दुहाई देकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहा है। वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान देहरादून, केंद्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला सहित कई अन्य विभागों के विशेषज्ञों ने झील में तेजी से बढ़ रही गाद की मात्र व मछलियों की बढ़ती संख्या को नियंत्रित करने के लिए कारगर कदम उठाने को कहा था, लेकिन इस चेतावनी को भी नजरअंदाज किया गया। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने भी झील को बचाने के लिए कारगर योजना बनाने के आदेश दिए थे, लेकिन इसे संवारने के लिए तैयार किया गया करीब सात करोड़ का प्रोजेक्ट फाइलों में ही धूल फांकता रहा। विडंबना यह है कि तटीकरण के अभाव में कैचमेंट की सारी गंदगी झील में समा रही है व झील से पानी व गाद निकासी की कोई व्यवस्था नहीं है। झील की आस्था व अस्तित्व को बचाने के लिए रखने के लिए जरूरी है कि सरकारी सुस्ती से बाहर आकर इसे संवारना होगा। सबसे जरूरी है कि योजनाएं फाइलों तक ही न सिमटी रहें बल्कि धरातल पर उतरें।

[ स्थानीय संपादकीय : हिमाचल प्रदेश ]