राहुल गांधी ने हिंसा और तनाव से घिरे मंदसौर जाने की जो कोशिश की और उसके चलते स्थानीय पुलिस प्रशासन से उनकी जैसी झड़प हुई वैसी ही स्थिति चंद दिनों पहले सहारनपुर में भी नजर आई थी, जहां वह रोक के बावजूद प्रवेश करने की ठाने हुए थे। वह इसके पहले भी अशांति और उपद्रव से ग्रस्त इलाकों में प्रशासन की रोक के बावजूद पहुंचे हैं-कई बार कथित तौर पर गुपचुप तरीके से, लेकिन मीडिया की जानकारी में। इस तरह के राजनीतिक दौरे करने के मामले में वह अकेले नहीं हैं। हमारे पक्ष-विपक्ष के ज्यादातर नेता ऐसा ही करते हैं और आम तौैर पर उनकी प्राथमिकता विपक्ष शासित राज्यों के ठिकाने होते हैं। भले ही इस तरह के राजनीतिक दौरों का घोषित उद्देश्य पीड़ितों को न्याय दिलाना और उनकी मांगों को समर्थन देना होता हो, लेकिन मूल मकसद प्रचार पाना और खुद को पीड़ितों का हितैषी दिखाना अधिक होता है। आखिर नेताओं में संवेदना तभी क्यों जगती है जब कहीं किसी घटना में जनहानि हो जाती है? ऐसे सवालों का चाहे जो जवाब हो, राहुल गांधी के मंदसौर पहुंचने की कोशिश पर भाजपा केवल यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती कि विपक्षी नेता राजनीतिक रोटियां सेंकने की ताक में रहते हैं। उसे यह देखना होगा कि क्या कारण है कि उसके द्वारा शासित राज्यों में रह-रहकर ऐसी अप्रिय घटनाएं घट रही हैं जिनसे विपक्षी नेताओं को उसे घेरने का अवसर मिलता है? मंदसौर और आसपास के जिलों में किसानों के आंदोलन के इतना उग्र एवं अराजक हो जाने की जिम्मेदारी से मध्य प्रदेश सरकार बच नहीं सकती। यदि यह मान भी लिया जाए कि विपक्षी नेताओं ने इस आंदोलन को भड़काया तो भी यह सवाल उठेगा कि आखिर ऐसे नेताओं पर लगाम क्यों नहीं लगाई जा सकी?
नि:संदेह राजनेता लोगों के बीच जाकर ही अपनी राजनीति का संचालन करते हैं, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि वे दलगत हितों को ध्यान में रखकर ही पीड़ित-परेशान जनता का कुशल-क्षेम जानने की कोशिश करें? मंदसौर एक तरह से भिवानी, ऊना, सहारनपुर आदि की नई कड़ी है। जैसे भाजपा विरोधी नेता इन ठिकानों पर इसलिए आनन-फानन पहुंचे, क्योंकि इससे उन्हें मोदी सरकार को घेरने में आसानी हो रही थी उसी तरह भाजपा नेताओं ने भी अपने राजनीतिक दौरों के लिए ऐसे ठिकाने चुने जहां जाकर विरोधी दलों को कठघरे में खड़ा करने में आसानी होती थी। नेतागण अपने एजेंडे के हिसाब से अपनी राजनीति करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन कम से कम उन्हें ऐसे समय तो अशांत इलाके में जाने से बचना ही चाहिए जब माहौल अनुकूल न हो। वे ऐसे इलाकों में जल्द पहुंचकर अपना चेहरा चमकाने की कोशिश में स्थानीय पुलिस-प्रशासन के लिए सिरदर्द ही बनते हैं। बहुत कम ऐसा देखने को मिलता है जब कोई नेता किसी आंदोलन, मुहिम की शुरुआत से ही अपने को जोड़ता हो या उसका संज्ञान लेता हो। ऐसा नहीं है कि किसान यकायक समस्या से ग्रस्त हो गए हों। वे एक लंबे अर्से से समस्याओं से घिरे हैं। विडंबना यह है कि कर्ज माफी की तमाम योजनाएं असरहीन होने के बावजूद हमारे ज्यादातर नेता इसी उपाय को किसानों की समस्याओं का हल मान रहे हैं। यह दिखावे के साथ छलावे की भी राजनीति है।

[ मुख्य संपादकीय ]