फिलहाल बिहार की राजनीतिक फिजा बदली-बदली सी है। सरकार चलाने की प्रतिबद्धता के बीच परस्पर तीखे बयानों की चुभन का एहसास शासक से लेकर प्रशासक तक को हो रहा है। ताजा मामला राष्ट्रपति चुनाव को लेकर है। महागठबंधन धर्म की दुहाई दी जा रही है। दूसरी ओर से इस पद के लिए समर्थन का स्टैंड पहले ही साफ कर दिया गया है। इसी ‘स्टैंड’ ने विशेषकर बिहार की राजनीति में इस बार ज्यादा उफान ला दिया है। दूसरी तरफ राजनीति के जानकार यह मानते हैं कि खीझ मिटाने के लिए पार्टी के सर्वेसर्वा अपने लोगों को जान बूझकर बोलने की छूट देते हैं, फिर मामले की लीपापोती की जाती है।

इस बार भी ऐसा ही होगा। सरकार चलती रहेगी। इसका दूसरा पक्ष यह कि महागठबंधन के टिके रहने या टूट जाने के बार-बार पैदा किए जा रहे भ्रम की स्थिति में शासन का जनसरोकार प्रभावित हो रहा है। बिहार अब बाढ़ के मुहाने पर है। मानसून की स्थिति फिलहाल तक असामान्य है। राज्य के बड़े हिस्से में औसत से कम वर्षा हुई है। मैटिक के परिणाम आने के बाद गुणवत्तायुक्त कॉलेज परिसर की उपलब्धता बड़ी चुनौती के रूप में सामने है। अस्पतालों में जीवन रक्षक दवाओं की घोर किल्लत अब भी बरकरार है। एंबुलेंस की जगह मोटरसाइकिल से शव ढोने की विवशता संसाधनों और व्यवस्था की पोल खोल रही है। आम आदमी इन मोर्चो पर महागठबंधन सरकार को मजबूती के साथ खड़े देखना चाहती है। फिलहाल स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति ज्यादा बिगड़ी है।

अस्पतालों के इनडोर और आउटडोर में मिलने वाली दवाएं पूरी तरह से आज भी मयस्सर नहीं हैं। एक पड़ताल के मुताबिक आउटडोर में 70 प्रकार की दवाओं की आवश्यकता है, फिलहाल 38 ही उपलब्ध हैं। इनडोर में 112 की जगह 70 प्रकार की दवाएं ही उपलब्ध हैं। यह संक्रमण की बीमारियों का मौसम है। अस्पतालों में आंख और कान के ड्राप नहीं मिलते। दवाओं की खरीद का आलम यह है कि इसके खत्म हो जाने के बाद प्रक्रिया शुरू होती है। इसकी वजह से बड़ी संख्या में गरीब मरीज इसका लाभ नहीं ले पाते। सरकारी अस्पतालों की इस व्यवस्था ने चिकित्सकों और कारोबारियों को मरीजों के दोहन का रास्ता खोल दिया है। विभिन्न कंपनियों के प्रभाव में आकर चिकित्सकों द्वारा लिखी गई दवा बाहर से खरीदने को मरीज मजबूर होते हैं, जो महंगी हैं। जन सरोकार के इस मोर्चे पर शासन को और कमर कसनी होगी।

[ स्थानीय संपादकीय : बिहार ]