तीन वर्षों के अंदर रांची शहर के पांच ट्रैफिक एसपी बदल दिए जाने का सीधा अर्थ यही है कि या तो सरकार उनके काम से खुश नहीं थी या वे खुद ही हट जाना चाहते थे। इसलिए पैरवी-पौवा लगाकर चलते बने। सच यह भी है कि ट्रैफिक एसपी के पद पर कोई रहना नहीं चाहता, हालांकि निचले पदों से कोई हटना भी नहीं चाहता। बहरहाल, जब ट्रैफिक ही सुचारू नहीं तो शहर की गतिशीलता के लिए कुछ कहने की जरूरत नहीं। रांची और इसके आसपास के इलाकों में चाहे भले ही हर दिन नई इमारतें खड़ी कर दी जा रही हों, किंतु आज की तारीख में ऐसी हर इमारत राजधानी की गति को थोड़ा बाधित ही करती है। रांची में जो भी ट्रैफिक एसपी आता है, अपने तरीके से योजनाएं बनाता है, लेकिन उनपर अमल करने के पहले ही उसके पद पर कोई दूसरा आ धमकता है। बड़े अफसर की क्या, जो दूसरों की बनाई योजनाओं पर अमल करें? इसलिए हर नया अफसर पुरानी योजनाओं में कुछ बिंदु अपनी ओर से भी जोडऩे-घटाने में लग जाता है। ट्रैफिक न केवल जस का तस रहता है, बल्कि हर दूसरे दिन थोड़ा अधिक जाम हो जाता है। सड़कों की लंबाई-चौड़ाई बढऩी नहीं, अलबत्ता वाहनों की संख्या हर दिन बढ़ जाती है। ऐसे में जाम से निजात अभी सपना ही रहना है।

जनता के सरोकारों से सीधे जुड़ी दो महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाएं विधायिका और कार्यपालिका यदि किसी से डरती हैं तो वह न्यायपालिका ही है। अदालत आदेश देती है तो वे फौरन करती हैं। धीरे-धीरे अब आम धारणा यही बनती जा रही है कि सरकार बिना अदालती आदेश के वोट लेने के अलावा कुछ करना ही नहीं चाहती। यहां तक कि राजधानी की एक बड़ी समस्या ट्रैफिक को भी सुधारने में दिलचस्पी नहीं लेना चाहती। इसे अपना कर्तव्य तो खैर मानती ही नहीं। यह कहने की बात नहीं कि जब-जब अदालत ने घुड़की लगाई, दो-चार दिनों के लिए ट्रैफिक सुचारू रहा, लेकिन फिर अपनी पुरानी पटरी पर वापस लौट गया। जब दो-चार दिन के लिए सुधार लाया जा सकता है तो उसे हमेशा के लिए क्यों नहीं बहाल किया जा सकता? रांची की अधिकतर सिग्नल लाइटें महीनों से खराब हैं। क्या इनको दुरुस्त करने के लिए भी अदालती आदेश चाहिए और जब ट्रैफिक लाइटें दुरुस्त रखनी ही न थीं तो उनको लगवाया ही क्यों गया था? ऐसे में नीयत पर सवाल उठना लाजिमी है। किसी भी व्यवस्था में एक चावल छूकर पूरी हांडी परखने का चलन हमेशा रहा है।

[स्थानीय संपादकीय: झारखंड]