हाईलाइटर
---------
जेनरिक दवाइयों के काउंटर अस्पतालों में तो हैं लेकिन दवाइयां नहीं हैं। समस्या का समाधान महज नियमित निगरानी से ही संभव है।
---------------
विकास की बड़ी-बड़ी बातों में छोटी-छोटी जरूरतों की अनदेखी हो जाती है। प्राथमिकताएं बदलती रहती हैं। आवश्यकताएं भी हैं। राज्य में बेहतर अस्पताल और डॉक्टरों की कमी व्यापक पैमाने पर है और यह खलती भी है। लेकिन, सिर्फ इसी कमी को दूर करने से काम नहीं चलेगा। अच्छे अस्पतालों और विशेषज्ञ चिकित्सकों से समृद्ध लोगों का भला होगा लेकिन आम आवाम को तो सरकारी अस्पतालों और सस्ती दवाओं से मतलब है। अनुमंडल स्तर से लेकर रिम्स तक में डाक्टरों की व्यवस्था हो और दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए तभी वास्तविकता में स्वास्थ्य की स्थिति में परिवर्तन आएगा। उस पर भी यदि दवाएं सस्ती हों तो सोने पर सुहागा। केंद्र और राज्य ने इसके लिए योजनाओं को मूर्तरूप तो दे दिया है लेकिन निगरानी का अभाव है। यही कारण है कि जेनरिक दवाओं का लाभ गरीब नहीं उठा पाते और इसमें बाधक तत्वों पर कभी कार्रवाई भी नहीं होती।
राज्य में स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार के लिए फिलहाल सबसे अधिक आवश्यकता गरीबों को कम कीमत पर दवाएं सुनिश्चित कराने की है। अस्पतालों में जेनरिक दवाएं उपलब्ध भी रहती हैं तो डॉक्टर लिखते नहीं और अगर डॉक्टर कभी लिख दें तो दवा का मिलना संभव नहीं। केमिकल कंपोजिशन थोड़ा सा अलग क्या हुआ, दवाएं जेनरिक से ब्रांडेड हो जाती हैं। फिर इसी नाम पर मनमाना वसूली। देश में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढऩे का असर धीरे-धीरे ग्रामीण क्षेत्रों में भी दिखने लगा है। लोग नीम हकीम से दूर होकर अस्पतालों और डॉक्टरों के पास पहुंचते हैं। जागरूकता ऐसी कि इलाज कराने के लिए जमीन बेचने से भी नहीं हिचकते। लेकिन, सवाल यह कि आखिर कब तक लोग जमीन बेचकर इलाज कराते रहेंगे। रांची में सदर अस्पताल से लेकर राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स तक में जेनरिक दवाओं का घोर अभाव है। स्थिति यह है कि आपूर्तिकर्ता भी मांग के अनुरूप दवाएं उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं। यह स्थिति एक-दो दिन नहीं, छह महीने से है। इसकी निगरानी के लिए स्वास्थ्य विभाग की भारी भरकम टीम कुछ भी कर पाने में असमर्थ है या करना नहीं चाहती। दवा कंपनियां विभिन्न प्रकार की दवाओं को बेचने के लिए कितने प्रकार के हथकंडे अपनाती हैं, यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है। ऐसे में अगर आम आदमी यह भ्रम पालता है कि जेनरिक दवाइयां दवा कंपनियों के दबाव में काउंटरों तक नहीं पहुंच पा रही हैं तो इस भ्रम को तोडऩा सरकार का ही काम है।

[ स्थानीय संपादकीय : झारखंड ]