एक बार फिर वनराज अपने प्राकृतिक आवास से भटककर राजधानी की सीमा में पहुंच गए हैं। यह पहली बार नहीं है जब जंगल से भटके वन्य जीव गांव-शहरों का रुख कर रहे हैं। इससे पहले भी कई बाघ और तेंदुए शहरों का रुख कर चुके हैं। पूवरंचल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों से भी इस तरह की खबरें आ ही जाती हैं। भटके बाघ और तेंदुओं का आदमखोर हो जाना स्वाभाविक ही है क्योंकि जंगलों की भांति उन्हें गांव और शहरों में भोजन तो नहीं मिल सकता।

स्पष्ट है कि यह जीवों और मानव दोनों के लिए अच्छा नहीं है। बाघ-तेंदुओं के मजबूरी में आदमखोर होते ही इन्हें मारने की मांग जोर पकडऩे लगती है, लेकिन इस संकट के मूल में मनुष्य ही तो है। पेड़ों की अधाधुंध कटान हो रही है, जंगल सिकुड़ते जा रहे हैं। वनों में नियम-कानून ताक पर रखकर पर्यटन को बढ़ावा दिया जा रहा है। जंगलों के बीच से गुजरी रेल लाइनें वन्य जीवों को चैन नहीं लेने देतीं। जंगलों के चारों ओर बाड़ लगाने का प्रस्ताव ठंडे बस्ते में है। शिकारियों का आतंक, चारे-पानी की कमी और बाढ़ से वनों के विनाश को रोकने के उपाय न किए जाने की समस्याएं भी मुंह बाए खड़ी हैं।

इन समस्याओं का निदान तो बहुत दूर इनकी चर्चा भी तभी होती है जब कोई वन्यजीव अपनी सीमा लांघ कर मानव आबादी के लिए खतरा बनता है। वे महीनों भटकते रहते हैं पर उन्हें पकड़ने के पर्याप्त उपाय नहीं किए जाते। लखनऊ में वर्ष 2012 में पकड़ा गया बाघ इसका उदाहरण है। उसे पकडऩे में लगभग सौ दिन लगे थे।

एक बाघ मार दिया गया था। दरअसल वन विभाग को ऐसे अवसरों की तैयारी पहले से कर लेनी चाहिए, लेकिन यहां तो जब प्यास लगे तभी कुआं खोदने की परंपरा है। वन विभाग के पास संसाधनों का भी टोटा है। दिल्ली चिडिय़ाघर में बाघ के बाड़े में गिरे युवक को सिर्फ इसलिए जान से हाथ धोना पड़ा क्योंकि उस वक्त ट्रंक्वलाइजिंग गन उपलब्ध नहीं थी। यह आश्चर्यजनक है और इससे हमारी संवेदनशीलता पर भी प्रश्न उठते हैं।

नहीं लगता कि हमारी सरकारों ने कभी इस विषय पर गंभीरता से विचार किया होगा। उम्मीद करें कि शायद इस घटना के बाद सरकारें चेतेंगी और वन विभाग को अत्याधुनिक तकनीक से लैस करेंगी ताकि वन्य जीवों और मानव का जीवन निर्भय हो सके। पहल और फैसले तो सरकारों को ही करने होंगे।

(स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश)