एक बार फिर प्रदेश में कैदियों और जेल प्रशासन के बीच मारपीट और उपद्रव हो गया। इस बार यह संघर्ष गाजीपुर की जेल में देखने को मिला है। यहां कैदियों ने दो बंदीरक्षकों को बंधक बना लिया और जिला प्रशासन और सिविल पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा। पिछले पूरे साल थोड़े-थोड़े अंतराल में कोई न कोई जेल मारपीट-हंगामे के कारण चर्चा में आती रही है। अप्रैल 2016 के पहले सप्ताह में वाराणसी की केंद्रीय जेल में कैदियों ने काफी मारपीट और हंगामा किया, पुलिस को भी नहीं बख्शा और जेल अधीक्षक को बंधक बना लिया। अप्रैल के ही अंतिम सप्ताह में देवरिया की जेल में पथराव, लाठीचार्ज और फायरिंग हुई जिसके फलस्वरूप दोनों पक्ष के 33 लोग घायल हो गए। अक्टूबर मध्य में गोरखपुर में तोड़फोड़ व हवाई फायरिंग हुई तो तीन बंदी रक्षक घायल हो गए। अक्टूबर में आजीवन कारावास काट चुके वृद्ध कैदियों की रिहाई के लिए कई जेलों में भूख हड़ताल, हंगामा, नारेबाजी होती रही। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से चली यह बयार बरेली होते हुए नैनी तक पहुंची। जेल प्रशासन के खराब व्यवहार और जेल के खाने की गुणवत्ता में कमी को लेकर भी झड़प होती रही हैं।

प्रदेश के कारागार मंत्री स्वीकार कर चुके हैं कि जेलों में क्षमता से काफी ज्यादा कैदी बंद हैं। उनका यही आशय है कि कैदियों को संभालना कठिन हो रहा है। सरकार बचाव के लिए जो भी तर्क दे, मगर सोचना तो यह है कि छापे के दौरान जेल में मिलने वाली आपत्तिजनक सामग्री भीतर तक कैसे पहुंची। जेल के भीतर मोबाइल से गिरोह कैसे संचालित हो रहे हैं। इस काम के लिए तो गेट की सुरक्षा ही काफी है। यह भी देखने में आता है कि रसूखदार कैदी जेल अस्पताल का उपयोग कर शहर के किसी बड़े अस्पताल में अपना डेरा जमा लेते हैं, वहां दरबार लगाते हैं और अपने कारोबार का संचालन करते हैं। हाल में गोरखपुर और वाराणसी में दो चर्चित नामों ने अस्पताल के वार्ड अपने नाम आरक्षित कर लिये थे। वहीं से पेशी पर जाते और फिर वहीं उनकी आमद हो जाती। यह भी धारणा बन चुकी है कि जेल में जो जितना रुपया खर्च कर सकता है, उसे उतनी ही सुविधाएं मिलती हैं।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]