भारत में गंभीर वैचारिक मसलों पर तर्क और बाद-विवाद करने की एक लंबी परंपरा रही है। बहस कैसे हो, उसमें अनर्गल बातें न हो, तर्क करने की एक नियमित पद्धति हो, इन विषयों पर भारतीय मनीषियों ने एक संपूर्ण शास्त्र ही विकसित कर डाला, जो कि न्यायशास्त्र के नाम से जाना जाता है। दार्शनिक और वैज्ञानिक विषयों पर तर्क करने वाले विश्व के प्रथम उदाहरण भारतीय उपनिषद ग्रंथों में पाए जाते हैं। बौद्धिक बहसों में भाग लेना भारतीयों का एक पसंदीदा मनोरंजन रहा है। बहसों के आयोजन के लिए नगर में प्रमुख केंद्र पर सभा भवन का निर्माण किया जाता था। दार्शनिक बहसों और शास्त्रर्थ में ही विजेता होकर शंकराचार्य पौराणिक विकृतियों और पाखंड के विरुद्ध संघर्ष करने में सफल हुए। भारत की इस तर्कशील परंपरा से प्रभावित होकर अमर्त्य सेन ने ‘ऑग्र्यूमेंटेटिव इंडियन’ ग्रंथ लिखना आवश्यक समझा। आप कहेंगे कि हम इन पुरानी बातों को यहां क्यों दोहरा रहे हैं। वास्तव में जब हमें वर्तमान में कुछ खोया हुआ दिखाई पड़ता है, पुराना स्वाभाविक रूप से याद आ जाता है। यह चिंता की बात है कि जिस तर्कशीलता और विवेक के लिए कभी भारत की ख्याति सारी दुनिया में थी, वह आज गायब हो चुकी है। इसका जीता-जागता उदाहरण भारतीय संसद है, जो नोटबंदी के फैसले पर दसवें दिन भी ठप पड़ी हुई है और पूरा शीतकालीन सत्र व्यवधान की भेंट चढ़ जाने का खतरा उपस्थित हो गया है। कानून बनाने वाली इस सर्वोच्च संस्था में अब तार्किक बहसें नहीं होतीं। नोटबंदी के मामले में उम्मीद थी कि संसद में इस पर काफी बहस होगी। विपक्ष कुछ बौद्धिक तैयारी करेगा। विपक्ष ने तैयारी तो की, पर बौद्धिक रूप से नहीं शारीरिक रूप से। नोटबंदी के क्या अच्छे या बुरे परिणाम होंगे, इसके क्रियान्वयन से क्या दिक्कतें बढ़ेंगीं, उन दिक्कतों का क्या हल है, इस पर विस्तारपूर्वक बहस हो सकती थी। पर विपक्ष ने संसद की कार्यवाही में रुकावट डालकर बहस होने नहीं दिया। विपक्ष का यह अर्थ नहीं कि हर दशा में विरोध करना ही है। भारतीय परंपरा में केवल विरोध के लिए विरोध करने के सिद्धांत को सदैव नकारा गया है। विपक्ष के लिए अच्छा अवसर था कि अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करता। सभी चाहते है कि काला धन बाहर निकले। जनता का लगभग पूर्ण समर्थन है। मतभेद इस बात को लेकर है कि इस योजना के क्रियान्वयन के लिए सरकार ने कोई सुनिश्चित योजना नहीं बनाई। यह मामला ऐसा है कि पार्टी मतभेदों को भुला देना चाहिए था। सुनिश्चित योजना बनाने में विपक्ष की मदद ली जा सकती थी। विपक्ष स्वयं आगे आता तो उसका मान बढ़ता। 1बहस न होने देना संसद का चरित्र बन गया है। संसद में बोलते हुए हमारे माननीय सदस्यों को जरा सुनें। बहुमत ऐसे सदस्यों का रहता है जिनकी दिलचस्पी विषय विश्लेषण में नहीं भावुकता के प्रदर्शन पर अधिक होती है। वाकआउट, स्पीकर मंच के नीचे इकट्ठा होकर संसद की कार्यवाही न होने देना, नारेबाजी करना, बिल को फाड़ना जैसी शारीरिक हरकतों से सदस्य समझते हैं कि जनता में उन्हें लोकप्रियता मिल रही है। वोटिंग करने का ढंग पार्टी द्वारा तय किया जाता है, जैसे कि सदस्यों की अपनी कोई समझ है ही नहीं। संसद का मुख्य काम है अधिनियम बनाना, किंतु 75 प्रतिशत सदस्यों को अधिनियम बनाने की प्रक्रिया के विषय में कुछ नहीं पता होता। एक तरफ जहां हल्ला मचाने वाले सदस्य हैं वहीं दूसरी ओर ऐसे सदस्यों की भी कमी नहीं जो संसद में कभी नहीं बोले अथवा निरंतर अनुपस्थित रहे। जब कभी किसी महत्वपूर्ण बिल पर वोट करने का अवसर आता है और पार्टी अपने सभी सदस्यों की उपस्थिति आवश्यक चाहती है, उस समय भी पार्टी के सचेतक के पास ऐसा कोई नियम नहीं है जिसके तहत वह अपने सदस्यों की उपस्थिति सुनिश्चित कर सके। यह है भारतीय संसद का चित्र। आखिर क्या कारण है कि हमारे तमाम संसद सदस्य सदन की कार्यवाही में नियमित रूप से भाग नहीं लेते? आते भी तो चुप रहते हैं या केवल नारेबाजी और कार्यवाही में रुकावट डालने के ही समय सक्रिय दिखाई पड़ते हैं। संसद इसी तरह कमजोर होती गई तो यह प्रश्न खड़ा हो सकता है कि संसद आवश्यक है या नहीं? संसद की संस्था यदि कमजोर होती गई तो दूसरे वैकल्पिक जनतांत्रिक संगठन अधिक प्रबल होंगे। 1वस्तुत: संसद सदस्यों की अक्षमता का मुख्य कारण है चुनावी व्यवस्था। संसद में पहुंचने के लिए चुनाव साधन है, साध्य नहीं। किंतु स्थिति यह हो गई है कि जो साधन है वही अब साध्य बन गया है। टिकट बांटते समय पार्टी सदस्यों की क्षमता और कार्यकुशलता नहीं देखती। वह प्रत्याशियों का चुनाव अपनी चुनावी सोच के अनुसार करती है, जिसमें जाति, संप्रदाय और वफादारी का अधिक महत्व होता है, योग्यता का नहीं। संसदीय कार्य को राजनीतिक दल अधिक महत्व नहीं देते। शून्यकाल में क्या मुद्दे उठाए जाएं, विभिन्न मामलों में प्रश्न पूछने की क्या प्रक्रिया हो, इन सब बातों पर पार्टियों का अपने दल पर कोई नियंत्रण नहीं होता है। सदस्य अनुपस्थित रहें, किसी भी कार्यवाही में भाग न लें अथवा हल्ला मचाएं, यह सब पार्टी के लिए महत्वहीन है। सदस्य स्वतंत्र हैं, वे कार्यवाही में भाग लें अथवा न लें, पार्टी की ओर से कोई निर्देशन या नियम नहीं होता।1संसद का स्तर ऊंचा हो, इसके लिए सभी पार्टियों को मिलकर सोचना पड़ेगा। संसद की जो स्थिति है वह भारतीय प्रजातंत्र की खामियों से जुड़ी है। भारतीय लोकतंत्र में अनेक खामियां है। फिर मसला चाहे हमारे शैक्षिक पतन का हो, या स्वास्थ्य कार्यक्रमों की उपेक्षा का, बढ़ते हुए कालेधन का या गरीबी का, चुनावी भ्रष्टाचार का या राजनीति के अपराधीकरण का, जातियों के बीच मनमुटाव पैदा करने का या धर्मिक उन्माद पैदा करने का, इन सब का संबंध हमारी लोकतंत्रत्मक व्यवस्था से अवश्य जुड़ा है। इसका यह अर्थ नहीं कि हम लोकतंत्र को तिलांजलि देकर कुछ दूसरा विकल्प ढूंढ़ें। तमाम बुराइयों के बावजूद यह व्यवस्था दूसरी व्यवस्थाओं से बेहतर है। जरूरत है खामियों को दूर करने की। लोकतंत्र को और अधिक बेहतर लोकतंत्र बनाने की। भारत को लोकतंत्र के लगभग 70 वर्षो का अनुभव हो रहा है। इसकी जो खामियां यहां है वे हमारे संज्ञान में हैं। जरूरत है चुनावी सुधारो की। इसकी मांग लंबे अरसे से हो रही है। जेपी आंदोलन में यही प्रमुख मुद्दा था। उम्मीद की जाती है कि प्रधानमंत्री का अगला कदम चुनावी सुधारों की ओर बढ़ेगा। काले धन की सबसे प्रमुख भूमिका चुनावों में होती है। इसे रोकना तभी संभव है जब सभी पार्टियां इस विषय पर राष्ट्रहित में बहस करने को तैयार हों। यह साबित हो गया है कि प्रधानमंत्री में कठोर निर्णय लेने का साहस है। अब आगे वह चुनावी सुधारों के कार्यक्रम के लिए पार्टियों को जुटाएं। जनता साथ होगी।

(लेखक जेएनयू में इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं)