उत्तराखंड में जंगलों की आग को लेकर सरकार संजीदा हो गई है। इस कड़ी में अलर्ट मोड पर कार्य करने के लिए आग पर काबू पाने के लिए कार्मिकों की संख्या में इजाफा करने के साथ ही संसाधनों की व्यवस्था समेत दूसरे कदम उठाए जाने की बात कही जा रही है। आग के दृष्टिकोण से वन क्षेत्रों को चार भागों में विभक्त करने के साथ ही सूचना-प्रोद्यौगिकी का सहारा लेने का निश्चय भी किया गया है। ये कदम सुकून देने वाले हो सकते हैं, लेकिन एक बड़ा सवाल अभी भी फिजां हैं और वह है जनसामान्य की भागीदारी। यह ऐसा मोर्चा है, जिसमें विभाग को अभी तक सफलता नहीं मिल पाई है।

ठीक है कि 71 फीसद वन भूभाग को आग से बचाना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है, लेकिन ये बात भी समझने की है कि बिना जनसहयोग के इस चुनौती से पार नहीं पाई जा सकती। थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो उत्तराखंड में वन एवं जन के बीच गहरा अपनापा रहा है। लेकिन, वन कानूनों के अस्तित्व में आने के बाद जिस प्रकार हक -हकूक पर अंकुश लगा और छोटे-छोटे कार्यों में भी अड़ंगा लग रहा है, उससे यह दूरी और बढ़ी है। इसे पाटने के लिए विभाग अभी तक कोई ठोस कसरत नहीं कर पाया है। ऐसा नहीं कि लोग जंगलों को बचाने में न जुटते हों, लेकिन वह तेजी नजर नहीं आती जैसी पिछली सदी में अस्सी के दशक से पहले हुआ करती थी। असल में तब लोग जंगलों से अपनी जरूरत पूरी करते थे तो ठीक उसी प्रकार उनकी सुरक्षा भी करते थे। आज स्थिति ये है कि यदि कोई जंगल से हक-हकूक लेना भी चाहे तो यह इतना आसान नहीं है।

प्रक्रिया इतनी जटिल है कि विभाग के एक दफ्तर से दूसरे के चक्कर काटते- काटते यह इरादा ही छोड़ देता है। ऐसी ही स्थिति जंगलों से गुजरने वाली पानी, बिजली की लाइन, सड़क आदि के मामलों में भी है। यही वजह भी है कि राज्यवासी यहां की विषम परिस्थितियों को देखते हुए वन कानूनों में शिथिलता की मांग करते आ रहे हैं, जिसे नजरअंदाज किया जा रहा है। ऐसे में सरकार के सामने वनों को आग से बचाने में जनता का सहयोग लेने की चुनौती कम नहीं है। हालांकि, नई सरकार ने इस पर फोकस करने की ठानी है।

इस कड़ी में जनजागरूकता कार्यक्रम संचालित करने के साथ ही लोगों को वनों से जोड़ने के लिए गांवों में रोजगारपरक कार्यक्रम संचालित करने की बात कही जा रही है। ताकि, वन और जन के रिश्तों में पैदा हुई खाई को भरा जा सके। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार व वन विभाग इस दिशा में पूरी संजीदगी से कदम उठाएंगे।