विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाएं खुद बीमार हाल में हैं। चिंता की बात ये कि 17 साल में भी यह लाइलाज बनी हुई हैं।
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उत्तराखंड 17 साल का होने जा रहा है, लेकिन विरासत में मिले बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं के घाव अब तक नहीं ठीक नहीं हो पाए हैं। यदि ये ठीक हो पाते तो मुख्यमंत्री के गृह जनपद पौड़ी जिले के यमकेश्वर ब्लाक के ग्राम सिगड्डी (घाईखाल) निवासी एक गर्भवती महिला रात में दो घंटे तक सड़क पर छटपटाती नहीं रहती। न सिर्फ यमकेश्वर बल्कि जनजातीय जौनसार बावर क्षेत्र समेत अन्य पर्वतीय इलाकों में बेहाल स्वास्थ्य सेवाओं की ऐसी तस्वीर अक्सर सुर्खियां बनती आई है। भूगोल के लिहाज से विशुद्ध रूप से 10 पर्वतीय और तीन मैदानी जिलों वाले उत्तराखंड का यह हाल सोचने पर विवश करता है। साथ ही समस्या के समाधान की दिशा में नीति-नियंताओं की इच्छाशक्ति को भी दर्शाता है। किसी भी मसले के निदान को 17 साल का वक्फा कम नहीं होता, लेकिन सूबे के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों को देखने के लिए लोगों की आंखें पथरा सी गई हैं। आंकड़ों पर ही नजर दौड़ाएं तो राज्यभर में सरकारी अस्पतालों की संख्या 993 है और यहां डॉक्टरों के 2711 पद स्वीकृत हैं। इन पदों में 1615 वर्षों से रिक्त चल रहे हैं और इनमें में अधिकांश पर्वतीय इलाकों के अस्पतालों में हैं। यहां न सिर्फ डॉक्टर बल्कि अन्य स्टाफ और दवाओं का भी टोटा है। परिणामस्वरूप सरकारी अस्पताल महज उपस्थिति दर्ज कराने तक सिमटे हैं। आलम ये है कि पहाड़वासियों को सर्दी- जुकाम की दवा तक को शहर की दौड़ लगानी पड़ रही है। उस पर विषम भूगोल ऐसा कि कई मर्तबा बीमार व्यक्ति गांव से रोड हेड तक लाते-लाते दम तोड़ देता है। उस पर सिस्टम का हाल देखिये कि लाख कोशिशों के बाद भी वह डॉक्टरों को पहाड़ चढ़ाने में अब तक नाकाम ही रहा है। सरकारें आई और गई पर इस मर्ज का इलाज आज भी लाइलाज बना हुआ है। ऐसा नहीं कि डॉक्टरों को पहाड़ चढ़ाने के प्रयास न हुए हों। राज्य के सरकारी मेडिकल कॉलेजों से निकलने वाले भावी डॉक्टरों को बांड की शर्तों में बांधने के प्रयास हुए तो कभी दक्षिण भारत से डॉक्टरों को यहां तैनात करने की बात हुई। पीपीपी मोड को भी माध्यम बनाया गया। बावजूद इसके ये प्रयास रंग नहीं ला पाए। स्वास्थ्य सुविधाओं के आधारभूत ढांचे में भी कोई बड़ा बदलाव नहीं आया। इस लिहाज से उत्तराखंड आज भी वहीं खड़ा है, जहां उत्तर प्रदेश में रहते था। चूंकि, अब सूबे में नई सरकार आई है तो उसे इस अहम सवाल पर गंभीरता से मनन कर इसके समाधान को प्रभावी पहल करनी होगी।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]