नासूर बने नक्सली
केंद्रीय गृहमंत्रालय की ओर से नक्सल प्रभावित दस राज्यों की बैठक बुलाने के फैसले से केंद्र सरकार की आंखें खुली हैं।
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के गढ़ सुकमा में सीआरपीएफ के 25 जवानों की देश को झकझोर देने वाली शहादत के बाद केंद्रीय गृहमंत्रालय की ओर से नक्सल प्रभावित दस राज्यों की बैठक बुलाने के फैसले से ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार की आंखें खुली हैं। आखिर ऐसी कोई बैठक बुलाने का फैसला 11 मार्च के बाद क्यों नहीं लिया गया जब सुकमा में ही नक्सलियों के हाथों 12 सीआरपीएफ जवान मारे गए थे? यह राज्य सरकार के साथ-केंद्र सरकार की सुस्ती और नक्सली हिंसा से निपटने के मामले में कामचलाऊ रवैये का ही नतीजा रहा कि नक्सली पिछले सात साल में सबसे बड़ी वारदात को अंजाम देने में सफल रहे। न जाने कब से यह कहा जा रहा है कि सीआरपीएफ जवान छापामार लड़ाई लड़ने का अनुभव नहीं रखते, लेकिन कोई नहीं जानता कि ऐसे बल को तैयार करने की जहमत क्यों नहीं उठाई गई जो नक्सलियों को उनकी ही भाषा में सबक सिखा सकता? पता नहीं इस मामले में आंध्र प्रदेश से कोई सबक सीखने से क्यों इन्कार किया गया? छत्तीसगढ़ का बस्तर क्षेत्र पिछले कई दशकों से नक्सलियों का गढ़ बना हुआ है, लेकिन राज्य सरकार की ओर से अभी तक ऐसा कुछ नहीं किया जा सका है जिससे आदिवासी एवं अन्य ग्र्रामीण नक्सलियों के मोहपाश से निकल पाते। नक्सली संगठन और कुछ नहीं वन एवं खनिज संपदा को लूटने एवं उगाही करने वाले ऐसे माफिया गिरोह हैं जिनकी सभ्य समाज में कोई जगह नहीं हो सकती। वे किस तरह अपनी गतिविधियां चलाते हैं, कहां से हथियार पाते हैं और कौन उनके हमदर्द एवं हितैषी हैं-इन सब बातों से स्थानीय लोग अच्छी तरह अवगत होते हैं। यह मानने का कोई कारण नहीं कि राज्य सरकार और उसके खुफिया तंत्र को इस सबके बारे में कुछ पता न रहता हो।
अच्छा हो कि केंद्रीय गृहमंत्रालय यह हर हाल में सुनिश्चित करे कि नक्सल प्रभावित राज्यों की बैठक दिखावटी और निष्प्रभावी न साबित हो। नक्सलियों से निपटने के लिए नई रणनीति बनाने के साथ ही यह भी जरूरी है कि उस पर ढंग से अमल भी हो। नक्सलियों को महज भटके हुए नागरिक मानना एक किस्म का पलायनवाद ही है। दरअसल इस सोच ने ही नक्सलियों को दुस्साहसी बनाया है। यदि कश्मीर में आतंकवाद और पूर्वोत्तर में अलगाववाद को कुचलने में सेना का इस्तेमाल हो सकता है तो नासूर बन गए नक्सलियों से सख्ती से निपटने में संकोच क्यों? इसमें कहीं कोई दो राय नहीं कि नक्सली संगठन रह-रह कर खूनी खेलने में सक्षम हैं तो इसीलिए कि उनका दमन करने के मामले में आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देने से इन्कार किया जा रहा है। सभी इससे परिचित हैं कि नक्सली न तो हथियार डालने के लिए तैयार हैं और न ही बातचीत करने के लिए, फिर भी पता नहीं क्यों उन्हें वार्ता की मेज पर आने का निमंत्रण दिया जाता रहता है। ऐसे निमंत्रण एक राष्ट्र के रूप में भारत की कमजोरी को ही रेखांकित करते हैं। हमारे नीति नियंताओं को इसका अहसास होना चाहिए कि नक्सली हमलों में जान गंवाने वाले जवानों की बढ़ती संख्या देश की जगहंसाई भी करा रही है।
[ मुख्य संपादकीय ]