--------सरकार के संदेश ऊपर से नीचे की और चलते हैं और यदि अफसरशाही की लगाम नहीं कसी जाती तो उसकी चाल बदलना मुश्किल होता है। -----------लोक कल्याणकारी सरकार के कामकाज का पैमाना इस बात से भी आंका जाता है कि जनता की शिकायतों के प्रति वह कितनी संवेदनशील है और अधिकारी कितनी तत्परता से उस पर कार्रवाई करते हैं। मुख्यमंत्री ने शपथ लेते ही जन सुनवाई के प्रति गंभीरता जताई थी, फिर भी जिलों में अधिकारियों की इसके प्रति उदासीनता आश्चर्यजनक है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि जिलों के अधिकारी सरकार की प्राथमिकताओं को लेकर गंभीर नहीं हैं। ऐसे जिलों में राजधानी लखनऊ का भी शामिल होना तो और भी चकित करने वाला है क्योंकि राजधानी में ही पूरी सरकार का वास भी है। मुख्यमंत्री ने दस जिलाधिकारियों, दस वरिष्ठ पुलिस अधीक्षकों और अब प्राधिकरण के उपाध्यक्षों व नगर आयुक्तों से स्पष्टीकरण मांगा है लेकिन, लगता है कि सिर्फ इतना ही पर्याप्त नहीं होगा। वैसे भी लापरवाह अफसरों के विरुद्ध कार्रवाई का स्तर प्रथमदृष्टया औपचारिक नहीं नजर आना चाहिए। सरकार को एक-दो बड़े अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की नजीर पेश करनी चाहिए ताकि निचले स्तर तक के अधिकारियों को संदेश दिया जा सके कि उदासीनता का खमियाजा उन्हें भी भुगतना पड़ सकता है। सरकार के संदेश ऊपर से नीचे की ओर चलते हैं और यदि अफसरशाही की लगाम नहीं कसी जाती तो उसकी चाल को बदलना मुश्किल होता है। बड़े बहुमत से सत्ता में आई भाजपा सरकार पर जन अपेक्षाओं का बड़ा दबाव है। ऐसे में उसके लिए कई ऐसे कदम तत्काल उठाने की जरूरत है जो पूर्ववर्ती सरकारों से उसके कामकाज की शैली को अलग कर सकें। पूर्ववर्ती भाजपा सरकारों में कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह ऐसा करने में सफल रहे थे। यही वजह है कि सुशासन की चर्चा के वक्त उनका नाम जरूर आता है। योगी सरकार के सौ दिन पूरे होने वाले हैं लेकिन, उन्हें इस कसौटी पर खरा उतरने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है। सरकार की साख किसी एक घटना या किसी एक दिन या किसी एक बड़ी कार्रवाई को लेकर नहीं बनती-बिगड़ती लेकिन, उसकी दिशा स्पष्ट नजर आनी चाहिए। चिंता का विषय है कि जिस राज्य के मुख्यमंत्री ने लोगों के लिए अपने दरवाजे खोल रखे हों, वहां के अधिकारी जन सुनवाई के मुद्दे पर फिसड्डी नजर आएं और वह भी बड़े-बड़े जिलों के। ऐसे ही हालात जनता में मायूसी बढ़ाते हैं।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]