सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरणविद् पद्मश्री अनिल जोशी की गांव बचाओ यात्रा का बेशक समापन हो गया हो, लेकिन सफर अभी लंबा है। यह यात्रा इस मकसद से सफल कही जा सकती है कि सूने गांवों को लेकर कम से कम लोगों में चेतना तो जगी ही। लोग गांवों की स्थिति को लेकर चर्चा करने लगे हैं। परिवर्तन प्रकृति का अटल सत्य है। यह बदलाव गांवों में भी देखने को मिला है। भारत की सत्तर फीसद आबादी गांवों में निवास करती है जैसे जुमले अब हकीकत से मेल खाते प्रतीत नहीं होते। बात चाहे मैदान की हो या पहाड़ की, गांव प्रभावित हुए हैं। हां दोनों में एक फर्क है। मैदानी क्षेत्रों में बढ़ता शहरीकरण गांवों को लील रहा है तो पर्वतीय क्षेत्रों में उपेक्षा का दंश गांवों को अकेला छोड़ रहा है। दरअसल, गांधी के दर्शन से बढ़ती से दूरी के कारण आज हालात ऐसे हो गए हैं। महात्मा गांधी देश की आर्थिकी को गांवों से जोड़कर देखते थे, लेकिन सरकारों ने उनके विजन को जुबां पर तो रखा, व्यवहार में नहीं उतारा। उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में भी देखें तो यही सब नजर आता है। हमारी नीतियों के केंद्र से गांव गायब रहे। विकास के नाम पर 'फलते-फूलतेÓ शहर ही ग्रामीणों का लक्ष्य बनते गए। यह एक स्थापित सत्य है कि अब तक की सरकारें सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में आंकड़ों का जाल बिछा अपनी पीठ भले ही थपथपाए, मगर कथनी और करनी का फर्क जमीन पर साफ दिखायी देता है। मसलन जगह-जगह स्कूल और अस्पतालों के भवन न शिक्षा का भरोसा देते हैं और न ही स्वस्थ रहने का। उत्तराखंड को बने हुए 16 साल हो गए, लेकिन न शिक्षक पहाड़ चढऩे को तैयार हैं और न ही चिकित्सक। यूं तो प्रदेश में सरकारी चिकित्सकों की संख्या निर्धारित पदों के आधे से भी कम है। इनमें से भी ज्यादातर पहाड़ की बजाए मैदानों में ही तैनात हैं। बिजली और पानी जैसी मूलभूत आवश्यकतों की पूर्ति नहीं हो सकी। अपने ही जंगलों में ग्रामीण हक-हकूक के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उद्योग धंधे इस ऊंचाई को नाप नहीं सके। ऐसे में नौजवान पहाड़ में रुके भी तो क्यों? जब युवा भविष्य की तलाश में गांव छोड़ आए तो बड़े-बूढ़े भी कब तक उनका इंतजार करते। वृद्धावस्था में सेहत वैसे भी साथ नहीं देती। बार-बार चिकित्सक की जरूरत पड़ती रहती है। वीरान गांवों में अकेलापन उन्हें कचोटता है। नतीजतन ऐसे लोग भी विवश होकर अपने बच्चों के साथ चले गए। अब पलायन कर चुके लोगों को गांव लौटाना एक बड़ी चुनौती है। इस चुनौती से तभी निपटा जा सकता है जब नीतियों के केंद्र में गांव हों। उम्मीद की जानी चाहिए कि जब सरकार ने मंडुवा और झंगोरे का रुतबा लौटाने की कोशिश की है तो गांव को लेकर भी ऐसी ही संवेदनशीलता दिखायी जाएगी।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]