अयोध्या में विवादित ढांचे के ध्वंस की साजिश के आरोपों से उच्च न्यायालय की ओर से मुक्त हो चुके लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमा भारती आदि नेताओं के मामले में सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी बंद पिटारे को खोलने वाली साबित हो सकती है कि इन लोगों को तकनीकी आधार पर छोड़ा नहीं जा सकता। यह संभव है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जिस तकनीकी आधार पर इन नेताओं को आपराधिक षड़यंत्र के आरोप से मुक्त किया उसकी समीक्षा की जरूरत हो, लेकिन यह समझना कठिन है कि यह काम सात साल बाद करने का क्या औचित्य? एक सवाल यह भी है कि इतने वर्षों बाद यह क्यों समझ आया कि ढांचा ध्वंस से जुड़े मुकदमों के जो ट्रायल रायबरेली और लखनऊ की विशेष अदालतों में चल रहे हैं उन्हें एक साथ चलाना बेहतर होगा? यह सुझाव अनुचित नहीं, लेकिन आखिर किसी को समय रहते यह क्यों नहीं सूझा कि दो जगह करीब-करीब एक तरह का काम होने का क्या मतलब? अभी यह कहना कठिन है कि रायबरेली और लखनऊ की विशेष अदालतों में लंबित मुकदमों को संयुक्त आरोपपत्र के आधार पर एक साथ जोड़ा जाएगा या नहीं, लेकिन अगर ऐसा होता है, जैसे कि संकेत दिए गए तो इससे नतीजे में पहुंचने में और देरी हो सकती है। माना जा रहा है कि अगर दोनों जगह के ट्रायल एक साथ मिलाए जाते हैं तो करीब दो सौ गवाहों को फिर बुलाना पड़ सकता है। दरअसल इन्हीं तौर-तरीकों से अदालती फैसलों में अनावश्यक विलंब होता है। जब ऐसा चर्चित मामलों में भी होता है तो आम लोगों को और अधिक निराशा होती है।
बड़े लोगों से जुड़े अथवा अन्य कारणों से चर्चित मामलों में यह भी खूब देखने को मिलता है कि वर्षों तक अदालत-अदालत होता रहता है। अक्सर मामला इतना लंबा खिंचता है कि लोगों की दिलचस्पी ही खत्म हो जाती है। कई बार तो ऐसे मामलों के अभियुक्तों के साथ-साथ गवाहों का भी निधन हो जाता है, लेकिन अंतिम फैसला तब भी नहीं आता। नि:संदेह यह भी होता है कि बंद हो चुके मामलों को किसी न किसी याचिका के बहाने नए सिरे से खोलने की कोशिश की जाती है। 1992 में अयोध्या के विवादित ढांचे के ध्वंस का मामला पहला ऐसा मामला नहीं जो लंबा खिंच रहा हो। 1984 के सिख विरोधी दंगों से जुड़े कुछ मामले भी समाप्त होने का नाम नहीं लेते। यह किसी से छिपा नहीं कि जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार के मामले अदालतों से बाहर आने का नाम नहीं ले रहे हैं। इसका कोई औचित्य नहीं कि पीढ़ियां बीत जाएं और फिर भी अदालती काम पूरा होने का नाम न ले। सबसे हैरानी की बात यह है कि तमाम मामले ऐसे हैं जो विशेष अदालतों में चलने के बावजूद जरूरत से ज्यादा लंबा खिंच रहे हैं। जब होना यह चाहिए कि बड़े मामलों का पटाक्षेप प्राथमिकता के आधार हो तब इसके उलट काम होता हुआ दिखता है। बेहतर हो कि न्यायपालिका यह समझे कि यदि मामलों का निपटारा समय पर नहीं हो रहा तो इसके लिए किसी न किसी स्तर पर वह भी जिम्मेदार है।

[ मुख्य संपादकीय ]