राजनीति में महिलाओं का प्रवेश करना और आगे बढ़ना क्यों कठिन है, इसे समझना हो तो हिमाचल प्रदेश में मंडी से भाजपा प्रत्याशी अभिनेत्री कंगना रनौत के खिलाफ कांग्रेस नेताओं और समर्थकों की भद्दी टिप्पणियों पर गौर करें। सबसे निराशाजनक यह है कि कंगना को लांछित करने वाली टिप्पणियां कांग्रेस की महिलाओं ने भी कीं। इनमें वे सुप्रिया श्रीनेत भी हैं, जो पत्रकार रह चुकी हैं और कांग्रेस की मुखर प्रवक्ता के रूप में जानी जाती हैं। यह पहली बार नहीं है जब किसी महिला नेता पर भद्दी टिप्पणियां की गई हों।

ऐसा पहले भी होता रहा है और यह तब तक होता रहेगा, जब तक राजनीतिक दलों का नेतृत्व करने वाले अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को स्त्रियों का सम्मान करने की सही सीख नहीं देते। चूंकि वे यह काम नहीं करते, इसलिए उनके समर्थक भी अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हैं। इंटरनेट मीडिया ने उनका काम और आसान कर दिया है। कुछ दल के समर्थक तो बेहूदगी की सारी सीमा लांघ जाते हैं। वे दूसरे दलों की महिला नेताओं के साथ पुरुष नेताओं पर भी भद्दी टिप्पणियां करते हैं।

निःसंदेह बात केवल कंगना रनौत की ही नहीं है। जब भी कोई महिला और विशेष रूप से युवा महिला राजनीति में कदम रखती है तो उसे तरह-तरह से लांछित किया जाता है और कई बार तो सीधे उसके चरित्र पर ही सवाल खड़े कर दिए जाते हैं। यदि कोई अभिनेत्री चुनाव मैदान में उतरती है तो उस पर कुछ ज्यादा ही छींटाकशी की जाती है। कभी उसके कपड़ों और शरीर को लेकर उस पर अपमानजनक टिप्पणियां की जाती हैं तो कभी उसके द्वारा निभाई गई भूमिकाओं को लेकर।

विरोधी दल की महिलाओं पर अपमानजनक टिप्पणियां करने के मामले में किसी एक दल को ही कठघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता और इसका प्रमाण है बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ भाजपा नेता दिलीप घोष की अमर्यादित टिप्पणी। यह ठीक है कि निर्वाचन आयोग ने कंगना रनौत और ममता बनर्जी के खिलाफ की गईं अशोभनीय टिप्पणियों का संज्ञान लिया, लेकिन इसमें संदेह है कि वह कोई ऐसी कार्रवाई कर सकेगा, जो नजीर बनेगी और जुबान पर काबू न रखने वालों को सही सबक मिलेगा।

यह संदेह इसलिए है, क्योंकि निर्वाचन आयोग के पास वैसे अधिकार नहीं, जैसे होने चाहिए। जुबान संभालकर बात न करने वाले इसीलिए बेलगाम रहते हैं, क्योंकि उन्हें यह भय नहीं होता कि निर्वाचन आयोग उन्हें कठोर दंड का भागीदार बना सकता है। कंगना रनौत और ममता बनर्जी पर जैसी ओछी टिप्पणियां की गईं, वे केवल राजनीति में भाषा के गिरते स्तर को ही रेखांकित नहीं करतीं, बल्कि यह भी बताती हैं कि अपने देश में सार्वजनिक संवाद का स्तर कितना गिर गया है। यह समझ लिया जाए तो बेहतर कि यदि राजनीति में सक्रिय महिलाओं की गरिमा का ध्यान नहीं रखा जाएगा तो समाज में भी उनके प्रति अनुकूल वातावरण का निर्माण नहीं होगा।